रेवड़ी आई
मूँगफली तिलकुट्टी महकी,
गज़क रेवड़ी आई।
थर-थर पूस काँपता ओढ़े,
दूध छाछ की चादर,
धुंध कोहरा की छाई है,
सूरज भाता सादर,
पादप मौन खड़े हैं,
छोटे या कि बड़े हैं,
धीरे – धीरे फैल रही है,
धूप गुनगुनी छाई।
कड़री, चना ,हरे बथुआ के,
स्वाद सभी को भाए,
ढूँढ़ – ढूँढ़ कर ले आते हैं,
मिलें न तो तरसाए,
मक्का की सद रोटी,
स्वाद लगी है मोटी,
ज्वार बाजरा खाते हैं जन,
जो जिसके मनभाई।
आलू भुने स्वाद के लगते,
शकरकंद भुनवाए,
अगियाने पर गप्प लड़ाते,
हाथ पैर गरमाए,
खाते कुछ गुड़धानी,
लंबी कहें कहानी,
ताप रहे हैं बैठ छान में,
बाबा दादी ताई।
भोर भई तमचूर बोलता,
कुक्कड़ कूं की बोली,
जागो – जागो बाहर आओ,
चोंच बतख ने खोली,
गौरैया चिचियाई,
पिड़कुलिया भी आई,
पिल्लों के सँग खरहे खेलें,
पूसी भी मिमियाई।
बस्ते उठा पीठ पर लादे,
बालक घर से धाए
टन – टन घण्टी बजे जोर से,
दौड़े कुछ अनखाए,
माँ बोली कुछ खा ले,
धीरज धर ए लाले!
नहीं देर तक सोया कर तू,
झूठी रिस भर आई।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’