ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा
नैसर्गिक सौंदर्य, सदाबहार घाटी, वनाच्छादित पर्वत, बहुरंगी संस्कृति, समृद्ध विरासत, बहुजातीय समाज, भाषायी वैविध्य एवं नयनाभिराम वन्य-प्राणियों के कारण देश में अरुणाचल का विशिष्ट स्थान है । लोहित, सियांग, सुबनश्री, दिहिंग इत्यादि नदियों से अभिसिंचित अरुणाचल की सुरम्य भूमि में भगवान भाष्कर सर्वप्रथम अपनी रश्मि विकीर्ण करते हैं I इसलिए इसे उगते हुए सूर्य की भूमि कहा जाता है । अरुणाचल प्रदेश के आदी, न्यिशी, आपातानी, तागिन, सुलुंग, मोम्पा, खाम्ती, शेरदुक्पेन, सिंहफ़ो, मेम्बा, खम्बा, नोक्ते, वांचो, तांगसा, मिश्मी, बुगुन, आका, मिजी इत्यादि आदिवासियों की प्राकृतिक जीवन शैली किसी भी सभ्य समाज के लिए अनुकरणीय है I अरुणाचल प्रदेश की अधिकांश जनजातियां ‘दोन्यी–पोलो’ के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करती हैं, लेकिन दोन्यी–पोलो की अवधारणा के संबंध में मतभिन्नता है I सामान्यतः इसे सूर्य और चंद्रमा का प्रतीक माना जाता है I इसे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वांतर्यामी और सर्वहितकारी माना जाता है I यह नैतिकता, प्रेम और अच्छाई का आध्यात्मिक स्रोत है I दोन्यी–पोलोवादियों के अतिरिक्त इस प्रदेश में बौद्ध धर्मावलंबी भी रहते हैं I यहाँ बौद्ध धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं I श्री दयाराम वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा’ में अरुणाचल प्रदेश के सांस्कृतिक, सामाजिक व धार्मिक विशिष्टताओं को रेखांकित किया है I उन्होंने इस यात्रा वृत्तांत में इतिहास, समाजशास्त्र, नृविज्ञान, लोक साहित्य सबको समेट लिया है जिसका प्रतिफल है कि यह पुस्तक अरुणाचल प्रदेश का एक सर्वसमावेशी रूप प्रस्तुत करती है I वर्मा जी किसी सैलानी की भांति प्रदेश का भ्रमण नहीं करते, बल्कि वे लोकजीवन में डूबकर वहाँ से मोती की खोज करते हैं और सकारात्मकता के पुष्प-पराग बिखेरते हैं I यह पुस्तक अरुणाचल प्रदेश की एक मुकम्मल छवि प्रस्तुत करती है I इस यात्रा वृत्तांत को पढ़ते हुए मैं 29-30 वर्ष पहले अपने ईटानगर प्रवास की स्वर्णिम स्मृतियों में खो गया I वर्माजी ने अत्यंत लगन और निष्ठा से इस सफरनामा को आकार दिया है I यह सफरनामा अनेक कारणों से विशिष्ट है I प्रस्तुत पुस्तक लेखक की सकारात्मकता, मिट्टी से जुड़ाव, लोकपरंपरा के प्रति आदर भाव और संवेदनशीलता का साक्षी है I पुस्तक 14 अध्यायों में विभक्त है I प्रथम अध्याय ‘यार्लुंग सांगपो से ब्रह्मपुत्र’ में अरुणाचल प्रदेश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का संक्षिप्त परिचय दिया गया है I उन्होंने यार्लुंग सांगपो के बारे में लिखा है-‘यार्लुंग सांगपो, गंगा व सिंधु सहित हिमालय से निकलनेवाली अनेक नदियों के जलस्रोत, हजारों वर्ग किलोमीटर में फैले तिब्बत के विशाल ग्लेशियर्स हैं I तिस पर भी सियांग नदी के उद्गम स्रोत और वहाँ से इसके भारत में प्रवेश के मार्ग के बारे में उन्नीसवीं सदी के अंत तक कोई ठोस प्रमाण नहीं था I’ इस प्रदेश का उल्लेख कालिका पुराण और महाभारत में भी मिलता है I वर्मा जी ने लिखा है-‘पुराणों में इस प्रदेश का वर्णन ‘प्रभु पर्वत’ के रूप में पाया जाता है I ऐसा माना जाता है कि यहीं पर ऋषि परशुराम ने अपने पाप का प्रायश्चित किया, ऋषि व्यास ने ध्यान लगाया, राजा भीष्मक ने अपना राज्य स्थापित किया और भगवान श्री कृष्ण ने रुक्मिणी से विवाह रचाया I’ द्वितीय अध्याय ‘अद्भुत संयोग’ में लेखक ने पुस्तक की रचना प्रक्रिया, 27 वर्ष पहले वायु सैनिक के रूप में अरुणाचल में व्यतीत समय, भौगोलिक कठिनाइयों, अपने सहयोगियों का सान्निध्य, अरुणाचल भ्रमण की रूपरेखा इत्यादि का विस्तार से वर्णन किया है I इस अध्याय में उन्होंने अपने मित्रों और सहयोगियों की सदाशयता के लिए उन्हें धन्यवाद ज्ञापित किया है I यात्रा वृत्तांत के तृतीय अध्याय ‘ईटानगर : स्थानीय भ्रमण’ में ईटानगर के महत्वपूर्ण स्थलों का विवरण दिया गया है I लेखक ने ईटानगर स्थित जैविक उद्यान, बौद्ध गोम्पा, नेहरू संग्रहालय, गंगा झील इत्यादि का विवेचन किया है I लेखक ने ईटानगर के प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी चित्र खींचते हुए लिखा है-‘यहाँ से सामने की पहाड़ी ढलानों पर बसे शहर का अधिकांश भाग देखा जा सकता था I शेष तीन दिशाओं में जंगलों से ढंकी छोटी-बड़ी पर्वत शृंखलाएँ थीं जिन पर काले-भूरे बादलों का डेरा था I आसमान में भी घने बादलों के समूह उमड़-घुमड़ रहे थे I कभी-कभी बादलों की किसी दरार को चीरते हुए सूरज की किरणें वादी को रोशन कर जातीं, लेकिन पुनः अगले ही पल उस दरार को कोई बदली ढांप देती और क्षणिक उजास लुप्त हो जाता I’ चतुर्थ अध्याय ‘ईटा फोर्ट और दोइमुख’ में ईटा फोर्ट, नाहरलगुन, दोइमुख, रोनो हिल्स इत्यादि का वर्णन किया गया है I आधुनिकता की दौड़ में आदिवासी जीवन शैली में बदलाव हो रहा है I वर्मा जी ने इस बदलाव की ओर संकेत किया है-‘उन्नत जीवन के सपनों, आधुनिकता की चकाचौंध, मुआवजे और अस्थायी नौकरी के लालच में फाँसकर विकास रूपी अजगर आदिम सभ्यता की मौलिकता को अपने नशीले सम्मोहन में जकड़े शनैः शनैः निगलता जा रहा है I जनजातियों की विलुप्त होती जा रही पुरातन जीवन शैली के विषाद की यथार्थ अनुभूति स्वयं एक आदिवासी से बढ़कर भला और कौन कर सकता है I’ पंचम अध्याय ‘ईटानगर से यिंगकिओंग’ में अरुणाचली जनजातियों की जीवन शैली, हिमालय पर्वत शृंखला का सौंदर्य, सियांग नदी, अरुणाचल के राजकीय पशु मिथुन की उपयोगिता का विवरण है I लेखक ने लिखा है-‘अब यह राजमार्ग अरुणाचल की इनर-लाइन के लगभग समानांतर आगे बढ़ता है और सड़क के दोनों ओर मीलों लंबे धान के लहलहाते खेत नज़र आने लगते हैं I इनमें जहाँ-तहां बाँस व लकड़ी की झोंपड़ियाँ, मछली पालन के लिए छोटे तालाब और गायों व भैसों के विचरण करते झुंड देखे जा सकते हैं I मार्ग में जगह-जगह ब्रह्मपुत्र की ओर सरपट दौड़ लगाती छोटी नदियाँ व नाले आते रहते हैं I’ ‘यिंगकिओंग से तुतिंग’ शीर्षक अध्याय में लेखक ने आपातानी समुदाय की धान-सह-मछली पालन की प्राचीन कृषि प्रणाली का वर्णन किया है-‘आपातानी जनजातीय कबीले ने आज से कोई पाँच सौ वर्ष पूर्व अरुणाचल प्रदेश में सर्वप्रथम पानी खेती के साथ मछली पालन की शुरुआत की थी I मछली के अतिरिक्त टिड्डे और मेंढक भी पानी खेती में पैदा हो जाते हैं जो खाने के काम आते हैं I झूम खेती को स्थानीय भाषा में आदि-आरिक कहा जाता है जबकि व्यवस्थित खेती को आसि-आरिक I ‘तुतिंग और गेल्लिंग : चीनी सीमा पर आखिरी भारतीय गाँव’ शीर्षक अध्याय में लेखक ने लामांग दीदी से पुनर्मिलन का अत्यंत भावुक वर्णन किया है-‘लामांग दीदी से तुतिंग की धरती पर पुनर्मिलन यक़ीनन मेरे लिए जीवन की एक विशेष संकल्प-सिद्धि थी I’ इस अध्याय में बौद्ध धर्म, बौद्ध प्रतीक और अरुणाचल की बौद्ध धर्मावलंबी जनजातियों की जीवन शैली का विवेचन किया गया है I चीनी सीमा पर स्थित आखिरी भारतीय गाँव गेल्लिंग में मेम्बा जनजाति का निवास है I मेम्बा जनजाति के लोग बौद्ध धर्म की महायान शाखा में आस्था रखते हैं I लेखक ने भारत के अंतिम गाँव में रहनेवाले एक बौद्ध धर्मावलंबी के पूजा कक्ष के बारे में लिखा है-‘छोटे से पूजा कक्ष को बड़े करीने से सामने की दीवार के पास एक लम्बी मेज पर तथागत बुद्ध की धातु की मूर्तियों के अतिरिक्त फ्रेम की हुई तस्वीरें, महामहिम दलाई लामा की एक बड़ी तस्वीर, चीनी-मिट्टी के प्याले, तश्तरियाँ, फूलदानों में सजे पुष्प, लाल रंग के मेजपोश और पीले रंग की झालरें सुशोभित कर रही थीं I’ लोसर, तोरग्या, ध्रुबा, और सोबुम इस गाँव के बौद्ध त्योहार हैं I ‘लामांग तेदो और याकेन निजो’ शीर्षक अध्याय में तुतिंग के नैसर्गिक सौंदर्य, आदी समुदाय के धार्मिक विश्वास, रीति-रिवाज, गृह निर्माण इत्यादि का विवरण है I मदिरा अरुणाचली जीवन शैली का एक अनिवार्य घटक है I लेखक ने कई बार स्थानीय मदिरा आपोंग का वर्णन किया है I अरुणाचल प्रदेश में चावल या महुआ से बननेवाली मदिरा का नियमित उपयोग किया जाता है जिसे ‘आपोंग’ कहा जाता है I आपोंग के अधिक अल्कोहल वाले रूप को ‘रोक्सी’ कहा जाता है I ‘बेयुल पेमाको, पाल्युन मंदिर और मठ’ शीर्षक अध्याय में बौद्ध धर्म के मठ, गुरु पद्मसंभव की शिक्षा, पाल्युन बौद्ध मंदिर इत्यादि का चित्रण किया गया है I लेखक ने उल्लेख किया है कि बेयुल के पवित्र क्षेत्र को ‘द हिडन लैंड’ के रूप में जानते हैं जो बौद्ध गुरु पद्मसंभव की तपोस्थली रहा है I तथागत बुद्ध ने हीनयान और महायान की शिक्षा दी थी, लेकिन उन्होंने अपने कुछ चुनिन्दा शिष्यों को वज्रयान की शिक्षा प्रदान की थी I गुरु पद्मसंभव ने वज्रयान की शिक्षा को समग्रता प्रदान की I ‘शिल्प केंद्र और अग्रिम हवाई पट्टी’ तथा ‘हैंगिंग ब्रिज, कोदाक ब्रिज और पिकनिक’ शीर्षक अध्यायों में अरुणाचली काष्ठशिल्प, वस्त्रों के प्रकार, विभिन्न पुलों और हवाई पट्टी का वर्णन किया गया है I सियांग नदी के बारे में लेखक का कथन पाठकों को भावुक कर देता है-‘सियांग कभी विश्राम नहीं करती, न वह थकती है I वह बूढ़ी भी नहीं होती I जन्म से लेकर आज तक लगातार पहाड़ों की गोद में उछलती-कूदती, दौड़ती सियांग सदैव एक नवयौवना है I’ अगले अध्यायों ‘वापसी और स्मृतियों में बसा मेचुका’ एवं ‘पासीघाट का एक यादगार दिन’ में लेखक ने मेचुका नामक खुबसूरत गाँव, इस अंचल में गुरु नानक देव का प्रवास तथा ‘श्री तपो स्थल साहिब जी’ गुरुद्वारा के निर्माण के बारे में वर्णन किया है I लेखक ने मेचुका के बारे में लिखा है-‘समुद्र तल से छह हजार फुट की ऊँचाई पर बसा मेचुका या मेंचुखा योमी जिले की मेकमोहन रेखा के अत्यंत समीप एक छोटा खूबसूरत गाँव है I मेंचुखा का स्थानीय भाषा में अर्थ है औषधीय जल I संभवतः यहाँ के पानी में औषधीय गुणों के कारण कस्बे का यह नामकरण हुआ I’ अरुणाचल प्रदेश के सबसे पुराने शहर पासीघाट को वर्ष 1911 में अंग्रेजों ने स्थापित किया था। इसे अरुणाचल प्रदेश का प्रवेश द्वार माना जाता है I यह सियांग नदी के तट पर अवस्थित है। प्रकृति ने इस स्थल का भरपूर श्रृंगार किया है I कुछ लोगों का मानना है कि उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक या नोएल विलियमसन की पहली यात्रा के दौरान ब्रिटिशों के आगमन के बाद शहर को पासीघाट नाम दिया गया । मान्यता है कि पासीघाट आदी जनजाति की उपजाति ‘पासी’ शब्द से उत्पन्न हुआ है। ‘ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा’ में लेखक ने पासीघाट के इतिहास, नगरीय जीवन, बाज़ार, स्मारक इत्यादि का जीवंत वर्णन किया है I सियांग की बलुई मिट्टी को स्मृति चिह्न के रूप में बोतल में भरने का उपक्रम इस बात का साक्षी है कि लेखक का अरुणाचल से कैसा स्नेहिल व अटूट जुड़ाव है I ‘डिब्रूगढ और घर वापसी’ शीर्षक अंतिम अध्याय में हवाई अड्डे पर सुरक्षाकर्मी द्वारा बलुई मिट्टी के बारे में पूछने पर लेखक का यह कथन अभिभूत कर देता है-‘यह बेशकीमती गोल्डन सैंड है ‘I दयाराम वर्मा की पुस्तक ‘ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा’ अत्यंत रोचक और पठनीय है I पुस्तक की भाषा सरल और बोधगम्य है I इस यात्रा वृत्तांत में लेखक ने मार्ग में आनेवाले नदी-नाले, पर्वत शृंखला, जलप्रपात, ब्रिज, मंदिर, मठ, गुरुद्वारा इत्यादि का शोधपरक विवरण प्रस्तुत किया है जो अरुणाचल प्रदेश की यात्रा करनेवाले पर्यटकों का मार्गदर्शन करने में समर्थ है I प्रस्तुत पुस्तक अरुणाचल प्रदेश की उन सांस्कृतिक विशिष्टताओं को सामने लाती है जिन पर अभी तक बहुत कम लेखकों एवं अनुसंधानकर्ताओं का ध्यान गया है I यह पुस्तक पर्यटकों, संस्कृतिकर्मियों, अनुसंधानकर्ताओं के साथ-साथ आम पाठकों के लिए भी उपादेय है I
पुस्तक-ब्रह्मपुत्र से सांगपो : एक सफरनामा (यात्रा वृत्तांत)
लेखक-दयाराम वर्मा
प्रकाशक-बोधि प्रकाशन, जयपुर
वर्ष-2022
मूल्य-200/-
पृष्ठ-184