सर्दी
हे सर्दी और कितना हमें सतायेगी
तुम्हें जीव जन्तु पर कब रहम आयेगी
कोहरा ने दी है धुंध की अवतार
वापस ले लो ये सर्दी का उपहार
हे सर्दी और कितना हमें सतायेगी
कब तलक ये आफत बरपायेगी
पानी भी बन वर्फ करती है प्रहार
हे प्रकृति ना कर जीवों पे अत्याचार
हे सर्दी और कितना हमें सतायेगी
रजाई और कम्बल में छुपायेगी
कुहासा का जब भरता है भंडार
अंधेरों में सो जाता है पूरा संसार
हे सर्दी और कितना हमें स्तायेगी
मानव जीवन पर कहर बरसायेगी
सूरज की किरण को दो अब द्वार
छा जाये उजाला हो जगमग संसार
हे सर्दी और कितना हमें सतायेगी
घर के अंदर बन्द कर रूलायेगी
हो जाने दो गर्मी का अब आगांज
चंगा हो जये प्रकृति की मिजाज
— उदय किशोर साह