सर्दियों का उपहार – रजाई और तलाई का इतिहास
सर्दियों (जाड़ो) में रज़ाई तथा तलाई के आनंद की अपना ज़रूरत होती है। अच्छी नींद तंदरूस्ती देती हे तथा जाड़ों में अच्छी नींद लेने के लिए
रज़ाई तथा तलाई का सेंक लेना अति ज़रूरी होता है। जाड़ों में लिहाफ या रज़ाई लेना अनिवार्य होता है।
जाड़ों में सोते समय रज़ाई तथा तलाई का बादशाही आनंद सुखद जीवन की परिभाषा छोड़ता है। जाड़ों में ऊपर ओढ़ने वाला दोहरा कपड़ा जिसमें
रूई भरी होती है रज़ाई कहलाता है।
रज़ाई की छवि जैसे कई शब्द अस्तित्व में है जिस तरह मिरजई। मिरजई प्राचीन समय का वस्त्र है। एक किस्म की कमीज़ जिस में रूई भरी
होती है। इस का रिवाज़ खत्म हो चुका है फिर भी लखनऊ, राजस्थान, वाराणसी, मध्य प्रदेश आदि स्थानों में मिरजई कमीज़ पुराने लोग कहीं-
कहीं पहनते हैं।
संस्कृत का रंजिका जिस अर्थ है वस्त्र। इस शब्द से ही रजाई का अस्तित्व बना। फारसी में रजाई का अर्थ हे जाड़ों में सिर पर ओढ़ने वाला वस्त्र।
राजदान से रजाई शब्द । राजी तथा रजा अरबी भाषा के शब्द है जिसके अर्थ है मानना, स्वीकार, अधिकार में रहना। रजा शब्द रजाई वस्त्र का
अस्तित्व पैदा हुआ। और रजाई शब्द प्रचलित हुआ।
प्राचीन में रजाई नुमां वस्त्र भी प्रचलित थे। मानव के विकसित (उन्नति) के साथ-साथ रजाई के रूप भी बदलते गए। आज़ादी से पहले अंग्रेज
आफिसरों ने रजाई का खूब मज़ा लिया। देश विदेश तक रजाई ने अपनी पहचान छोड़ी।
इसी तरह की तलाई शब्द तला से बना जिसका अभिप्राय है निम्न हिस्सा, पैंदी, अंतिम हिस्सा, पाताल इत्यादि नीेचे विछाने वाला वस्त्र। तला
शब्द से तलाई का अस्तित्व बना। केवल रजाई वा केवल तलाई की कोई वुक्त नहीं। दोनों एक साथ है।
रजाई की कई किस्मंे बाजार में आ चुकी हैं। प्राचीन समय में हाथों की बनी हुई भारी रजाई होती थी। जिसमें कपास की रूई पड़ती थी। इसी
तरह ही तलाई में रूई थोड़ी कम भरी जाती। चारपाई तथा कद के हिसाब से रजाई की लम्बाई-चौढ़ाई निश्चित कर ली जाती थी।
आजकल बाजार में रजाईयां अनेक डिजाईनों में आ चुकी हैं। पहले तो केवल खदर की ही रजाईयां चतली थीं। वस्तु आहिस्ता आहिस्ता कपड़े के
अनेक किस्में आने से भूमंडलीकरण तथा नवउदारवाद के युग में मशीनरी तथा कंम्प्यूटर की आधुनिक तकनीक ने लिहाफ को खदर के
अधिकार से बाहर निकाल कर आधुनिक आकर्षक भव्य शैली वाले रंगदार वस्त्र में ले आ खड़ा कर दिया।
पहले तलाई धारीदार कपड़े में प्रचलित थी परन्तु अब आधुनिक डिजाईनदार वस्त्र ने जगह ले ली है। किसी समय बेकार रूईं यां कंम्बलों के
बेकार धागे, फैक्टरी के बेकार वस्त्रों की कतरनों से भी रजाईयां भरी जाती थीं परन्तु अब यह शैली खत्म हो चुकी है।
देखने में आया है कि कपास की रूईं का रिवाज (परम्परा) भी कम होता जा रहा है। रूईं की जगह आजकल फाईबर रूईं ज़्यादा भरी जाती है।
फाईवर, कपास से सस्ता पड़ता है क्योंकि रूई से फाईवर बहुत हल्का तथा कम बज़न वाला होता है और कपास की रूईं से फाईंवर में सेंक ज़्यादा
होता है।
रजाई का कपड़ा भी आजकल कई किस्मों में आने लगा है। मशीनी बढ़िया काटन, वैलनेट, बैड शीट वस्त्र, सिलकी कपड़ा, गलेस काटन,
पोलीऐस्टर आदि किस्म का कपड़ा रजाई-तलाई के लिए प्रयोग होने लगा है। पहले रजाई का निम्न हिस्सा एक ही रंग में होता था आज कल
दोनों तरफ एक जैसे होते हैं। तलाई के लिए चैक कपड़ा, बढ़िया काटन, मिश्रण कपड़ा, वाल पेपर आदि डिजाईन वाला कपड़ा प्रयोग में लाया
जाता है।
आज कल रूईं 130 रूपए किलो के हिसाब से मिली है। एक रजाई में चार से पांच किलो रूई पड़ जाती है जब फाईवर रूईं 190 से 220 रूपए किलो
मिलती है यह एक रजाई में 2 से 2½ किलो पड़ती है। सिंगल रजाई पांच सौ रूपए से लेकर 1400 रूपए तक विकती है। जबकि डब्ल रजाई 1400
रूपए से लेकर 3000 रू तक मिलती है। रजाई के प्रचलित साईज है 1½ मीटर 2½ से मीटर तथा 2 से 2½ मीटर, बड़ा साईज 2½ से 3 मीटर आदि
तक है।
जयपुरी तथा नागालैंड, मोहिमा, दीमापुर, गोहाटी आदि शहरों की रजाई रंगों भरपूर, भव्य आकर्षण तथा मर्मस्दर्शी डिजाईनों में आती हैं, यह
रजाई हल्की (कम बज़न) वाली तथा खूबसूरत दिखती हैं। जय पुरी रजाई पतली तथा देसी कपास की बनी होती हैं – यह रजाई सितम्बर से
फरवरी माह तक ही ओढ़ी जा सकती हैं, इसको फर्जी रजाई भी कहते हैं। इस रजाई में केवल 1) किलो रूई होती है। सफर में इस रजाई का साथ
बेहतर होता है। तलाई 3 फुट, 6 फुट तथा 4 फुट, 6 फुट तक होती है। पहाड़ी (पर्वतीए) या ग्लेसियर क्षेत्र में फौजी या लोग, बोरानुमां (थैला नुमां)
रजाई लेते हैं। थैले जैसी रजाई बनाकर उस के मुंह के अंदर जिप आदि लगा देते हैं। इस रजाई के भीतर जाना पड़ता है। यह रजाई भारी तथा
विशेष किस्म की होती है। इस के भीतर हवा प्रवेश नहीं कर सकती।
रजाई तथा तलाई को भरने के लिए पहले रूईं की पिंजाई की जाती है फिर भराई तथा बाद में कारीगर सूई से रजाई पिरोते हैं धागे से डिजाईन भी
डाले जाते हैं जिसको पजांबी में गूड्डेवाना कहते हैं। आज कल भारती रजाईयां विदेशों में खूब विकती हैं प्रत्येक वर्ष लाखों करोड़ों का धंधा होता
है। देखा जाए तो रजाई, तलाई के अतिरिक्त जाड़े गुजारना मनुष्य के लिए अति मुश्किल है। बेशक आधुनिक वस्त्र तकनीकें अस्तित्व में आ
चुकी हैं परन्तु रजाई तो रजाई ही है और तलाई तो तलाई ही है।,
— बलविन्दर बालम