प्राकृतिक चिकित्सा की सीमायें
इस लेखमाला में प्राकृतिक चिकित्सा की लगभग सभी क्रियाओं तथा इस पद्धति से ठीक होने वाले रोगों के बारे में विस्तार से बताया जा चुका है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राकृतिक चिकित्सा से सभी रोग या सभी रोगी ठीक हो सकते हैं। वस्तुतः प्रत्येक वस्तु की तरह प्राकृतिक चिकित्सा की भी अपनी सीमायें हैं, क्योंकि कोई भी प्रणाली पूर्ण नहीं है। यहाँ इसकी सीमाओं की चर्चा की जा रही है।
सबसे पहली बात तो यह है कि जो लोग प्राकृतिक चिकित्सा कराने के लिए आते हैं, वे पहले कई वर्षों तक ऐलोपैथी, होम्योपैथी और अन्य पद्धतियों से अपनी चिकित्सा कराकर निराश हो चुके होते हैं। फिर ‘इसको भी आजमा लेते हैं’ की मानसिकता से प्राकृतिक चिकित्सा कराते हैं, यद्यपि इस पद्धति में उनका कोई विश्वास नहीं होता। विश्वास के अभाव में वे इसकी क्रियाओं को मन से नहीं करते और आधी-अधूरी करते हैं, इसकारण उनको लाभ भी उसी अनुपात में होता है या बिल्कुल नहीं होता।
दूसरी बात यह है कि अधिकांश रोगी स्वयं कुछ करना नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि उनको कोई गोली या कैप्सूल दे दिया जाये, जिसको वे गटक लें और पड़े रहें। यदि कुछ करना ही हो, तो डॉक्टर ही करें, जैसा कि ऐलोपैथिक डॉक्टर ऑपरेशन आदि स्वयं करते हैं और रोगियों की उसमें कोई भूमिका नहीं होती। लेकिन प्राकृतिक चिकित्सा में प्रायः सभी क्रियायें रोगी को स्वयं करनी पड़ती हैं, डॉक्टर या उनके सहायक इसमें केवल प्रारम्भिक सहायता ही कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में जो रोगी ‘स्वयं कुछ न करना पड़े’ की मानसिकता वाले होते हैं, उनको लाभ होने की संभावना कम होती है।
तीसरी बात यह है कि प्राकृतिक चिकित्सा में विभिन्न क्रियाओं तथा योग के साथ-साथ खान-पान में बहुत परहेज करना पड़ता है। यह बात उन लोगों को बहुत अप्रिय होती है, जो चटपटे मसालेदार खाने और बाजारू फास्टफूड के शौकीन होते हैं। इतना ही नहीं, प्राकृतिक चिकित्सा में रोगियों को चाय, कॉफी, शीतल पेय और नशे की वस्तुओं का पूर्ण परहेज करना पड़ता है। लेकिन अधिकांश लोग चाय के इतने शौकीन होते हैं कि उसे किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहते, भले ही वे बीमारी से मर जायें। प्राकृतिक चिकित्सक के अलावा कोई भी अन्य चिकित्सक रोगियों को चाय छोडने के लिए नहीं कहता। इसलिए लोग प्राकृतिक चिकित्सा की ओर आने में हिचकते हैं। वे चाहते हैं कि वे सब कुछ खाते-पीते रहें और ठीक हो जायें, परन्तु ऐसा नहीं हो सकता और इसीकारण वे कभी ठीक नहीं होते।
चौथी बात यह है कि प्राकृतिक चिकित्सा कराने वाले रोगियों में से अधिकांश की जीवनी शक्ति अन्य पद्धतियों की चिकित्सा और दवाओं की अत्यधिक मात्रा के सेवन के कारण इतनी कम हो चुकी होती है कि उनको पूर्ण लाभ होना बहुत ही कठिन होता है या उसमें बहुत समय लगता है। सामान्य रोगियों में इतना धैर्य नहीं होता कि वे महीनों तक प्राकृतिक चिकित्सा की क्रियाओं और परहेज आदि का पालन कर सकें। वे ऐसा इलाज चाहते हैं कि उन्हें तुरन्त लाभ हो, भले की वह कितना भी कम हो।
सबसे बड़ी बात यह है कि प्राकृतिक चिकित्सा का सहारा लेने वालों की संख्या अभी बहुत कम है, इस कारण इस पद्धति में कोई विशेष वैज्ञानिक अनुसंधान नहीं हो रहा है। इसलिए इस पद्धति को उतना महत्व और गति नहीं मिली है, जितनी ऐलोपैथी को मिली है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति केवल उपचार प्रणाली नहीं बल्कि एक पूरी जीवन शैली है। इसके पालन से रोगों का उपचार तो होता ही है, व्यक्ति की जीवनी शक्ति अर्थात् रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी अधिक बढ़ जाती है कि उसको कोई गम्भीर रोग हो ही नहीं सकता। अन्य चिकित्सा पद्धतियों में यह बात नहीं है। इस कारण से प्राकृतिक चिकित्सा अपनाने वाले रोगी न केवल स्वयं रोगमुक्त हो जाते हैं, बल्कि अन्य को भी इसकी सलाह देने के योग्य हो जाते हैं।
रोग प्रतिरोधक क्षमता पर सीधा सकारात्मक प्रभाव डालने के कारण प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति बहुधा ऐसे रोगों की चिकित्सा करने में भी सफल रहती है, जिसके लिए अन्य पद्धतियों के चिकित्सक अपने हाथ खड़े कर देते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में मानसिक रोगों, टीबी, गुर्दे के रोग, कैंसर, एड्स यहाँ तक कि कुष्ठ रोग की भी सफल चिकित्सा की जा सकती है, भले ही इनमें समय अधिक लग जाये। इनके अलावा दुर्घटनाओं की स्थिति में भी प्राकृतिक चिकित्सा कई बार बहुत उपयोगी होती है, क्योंकि कुछ क्रियाओं से चोटग्रस्त अंग के उपचार और प्रायः हड़डी के जुड़ने में भी प्राकृतिक चिकित्सा लाभदायक होती है।
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि वर्तमान चिकित्सा पद्धतियों में प्राकृतिक चिकित्सा ही भारत जैसे देश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। सामान्यतया होने वाले शत प्रतिशत रोगों और रोगियों का सफल उपचार इसके द्वारा किया जा सकता है। यद्यपि इसमें वैज्ञानिक अनुसंधान करने की आवश्यकता है, ताकि इसे ठोस वैज्ञानिक रूप दिया जा सके।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल