“छाई है बसन्त की लाली”
पाई है कुन्दन कुसुमों ने
कुमुद-कमलिनी जैसी काया।
आकर सबसे पहले
सेमल ने ऋतुराज सजाया।।
महावृक्ष है सेमल का यह,
खिली हुई है डाली-डाली।
हरे-हरे फूलों के मुँह पर,
छाई है बसन्त की लाली।।
सर्दी के कारण जब तन में,
शीत-वात का रोग सताता।
सेमलडोढे की सब्जी से,
दर्द अंग का है मिट जाता।।
जब बसन्त पर यौवन आता,
तब ये खुल कर मुस्काते हैं।
भँवरे इनको देख-देखकर,
मन में हर्षित हो जाते हैं।।
सुमन लगे हैं अब मुर्झाने,
वासन्ती अवसान हो रहा।
तब इन पर फलियाँ-फल आये,
लम्बा दिन का मान हो रहा।।
गर्मी का मौसम आते ही,
चटक उठीं सेंमल की फलियाँ।
रूई उड़ने लगी गगन में,
हुईँ रेशमी वन की गलियाँ।।
फूलो-फलो और मुस्काओ,
सीख यही देता है सेंमल।
तन से रहो सुडोल हमेशा,
किन्तु बनाओ मन को कोमल।।
—
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)