स्त्री जब अकेली पड़ जाती है,
तब हो जाती है और भी अधिक कठोर।
इतनी कठोर कि कोई भी उसके हृदय के भीतर झांकने से पहले सोचता है कई बार॥
जितनी ममता उसके वक्षस्थल में होती है,
उससे कहीं अधिक वो अपने शब्दों कि निर्मम क़टार रखती है अपने कंठ के कृपाण में।
क्यों कि यदि वो ऐसा न करे तो क्षण भर में छल ली जायें उन्ही लोगों के द्वारा,
जिन पर अपने नेत्र मूँद कर कभी विश्वास किया करती थीं।
स्तब्ध वो भी होती हैं जब उसके निर्मोही मन की सुदृढ़ता पर कोई आघात करने का प्रयत्न करता है॥
किंतु सम्भवतया ये भी सत्य है कि जो स्त्री प्रायः किसी के कंधे पर सुबक-सुबक कर रो देती थीं,
बहुत मज़बूती से बांध देती है ख़ुद को इस लिए भी,
कि कोई अनजाने में भी उसके भावों को आहत ना कर सके।
और उसके बनाए सीमाओं के भीतर तब तक प्रवेश करने की हिम्मत ना जुटा सके,
जब तक वो ख़ुद न चाहे॥
क्यों कि एक स्त्री का कोमल होना सबको सुहाता है,
लेकिन उसके विद्रोह की आँच में खड़े रह पाना ईश्वर के लिए भी यदि सम्भव न हो पाया,
तो प्राणी मात्र के लिए भी कैसे सम्भव हो सकता है॥
इसलिए कोशिश यही होनी चाहिए कि यदि उसके मनोबल को मज़बूत न कर सकें,
तो उसके बनाए गए बांध के भीतर भी कोई प्रवेश करने की कोशिश न करें॥
— रेखा घनश्याम गौड़