गीत – हम उस युग के बेटे हैं…
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर – घर घर होते थे।
घर के मालिक भी हम ही, हम ही नौकर होते थे।।
घर – घर थे मिट्टी के चूल्हे , मिट्टी की दीवारें।
दीवारों पर मिट्टी की छत, मिट्टी की बेगारें।।
हम आँखों में आँज आँज कर, काजल और ममीरे।।
मिट्टी में खेला करते थे, धूल भरे सब हीरे।
कुछ पर छत भी न थी फूस के, ही छप्पर होते थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर – घर घर होते थे।।
सबसे पहले माँ उठती जब, रात बीत जाती थी।
चकिया पर आनाज पीसते, हुए गीत गाती थी।।
बैल भैंस को बाँध पिताजी, खुद सानी करते थे।
गोबर उठा बुहार कुएँ पर, जा पानी भरते थे।।
मम्मी पापा ही घर के, गौरी – शंकर होते थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर घर घर होते थे।।
दादाजी से मम्मी पापा, मन ही मन डरते थे।
तब हम ही दादा जी पर, दादागीरी करते थे।।
दादी चेहरा देख अनमना, यूँ उलाँट पड़ती थी।
निरपराध मम्मी पापा पर, बहुत डाँट पड़ती थी।।
अनुशासन में बँधे मगर हम, नट – नागर होते थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर – घर घर होते थे।।
सभी पड़ोसी चाचा चाची, बुआ बहिन चढ़कर थे।
खास खून के रिश्तों से भी, सगे और बढ़कर थे।।
पूरा गाँव लाड़ करता था, हम गर्वित होते थे।
प्रेम पहनते थे सब मन से, नफरत को धोते थे।।
मेरे दादा से डर – डर कर, डर बाहर होते थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर – घर घर होते थे।।
पिज्जा बर्गर लिम्का कोको, काॅफी चाय नहीं थी।
रबड़ी कलाकन्द खाते थे, माँ असहाय नहीं थी।।
दूध दही घी छाछ मलाई, की नदियाँ बहती थीं।
बेशक मेहनत थी घर – घर में, पर खुशियाँ रहतीं थीं।।
अतिथि देव होते थे घर – घर, सब किंकर होते थे।
हम उस युग के बेटे हैं जब, घर घर घर होते थे।।
— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”