ठिठुरन भरी पूस की रात
हम गरीबों का मसीहा कौन है?
चांँद से बातें करता हूंँ ,
सिर पे मांँ – बाप का हाथ नहीं,
पर , छोटे भाई का साथ है ,
अब खोने को कुछ बचा क्या है!
अपना कोई ठिकाना नहीं ,
सड़क पर भटकता हूँ , मांँगने से कुछ मिल जाता है,
छोटे भाई का आधा पेट भरता हूंँ , ख़ुद पानी पी के रहता हूंँ ,
क़िस्मत का खेल है , हम गरीबों का मसीहा कौन है?
अनगिनत तारों से सवाल पूछता हूंँ।
ठिठुरन भरी पूस की रात में , न रज़ाई , न क़ंबल
एक दूसरे को गले लगा कर पटरियों बैठा हूंँ ,
बदन के ताप से , थोड़ी – सी गर्माहट मिल रही ,
रोड पर जाते लोग , हाथ में कुछ सिक्के पकड़ा जाते हैं
तो कोई हम पर तरस खाकर ,
कपड़े का थैला पकड़ा जाता ,
कब तक टुकड़ों पर जिएंगे , इनसे अब गुज़ारा नहीं होगा ,
आसमाँ को देख सवाल करता हूंँ ,
हम गरीबों को मसीहा कौन है?
— चेतना प्रकाश ‘चितेरी’