जागती आंख के सपने महोबबत के अल्फाज़ बुनेंगे,
अखियाँ सुर्ख़ हो, चट से महोबबत के अल्फाज़ बुनेंगे।
किस कदर तन्हा हुए है हम इस शहर की भीड़ में देखो,
ख़ुद से ख़ुद- नुमा होके, महोबबत के अल्फाज़ बुनेंगे।
सुकून की रात ना लौटी दिल टूट ना जाए आरसी का,
आईने अगर जगमगाए , महोबबत के अल्फाज़ बुनेंगे।
फुरकत में शौक़-ए-तमाशा ज़ख़्म हमारे दिल के हुए,
बने इश्क हिज्र का सहारा , महोबबत के अल्फाज़ बुनेंगे।
तिमिर के अधियारों में चरागों से महोबबत के अल्फाज़ बुनेंगे।
गर नूर में डूबे प्यार का आंचल , महोबबत के अल्फाज़ बुनेंगे।
— बिजल जगड