कविता

हे पुरुष! पुरुषत्व तेरा है छलावा

हे पुरुष!
नारियों के हेतु सौ – सौ वर्जनाएँ
और अपने हाथ सौ अधिकार लेकर,
न्याय के सर्वोच्च पद को कब्जियाए,
खींचते हो व्यर्थ ही लक्ष्मण रेखाएँ
और फिर रावण बने आते तुम्हीं,
सच बताओ, जल रहे प्रतिशोध में
या कि तेरी वासना तट तोड़कर
खींच लाई थी तुम्हें याचक बना…..।
हे पुरुष!
ये न कहना कि तुम्हें मालूम न था-
स्वर्ण के होते नहीं मृग इस धरा पर,
हे लखन! राघव! बताओ सत्य केवल
छोड़कर जाते समय मुझको अकेली
हाथ में मेरे अगर आयुध थमाते,
मैं लड़ी होती छली कामांध से,
जीत जाती तो पुरुष का दर्प मिटता
हार जाती तो भी यह संतोष रहता-
मैं लड़ी थी इन्द्र-विजयी-बाप से
किंतु ऐसा न हुआ।
हे पुरुष!
नारियों के ही लिए सब वर्जनाएँ
नारियों के ही लिए सब यातनाएँ
यंत्रणा तन, मन, हृदय पर…
है सुरक्षित पुरुष इसकी ओट में,
जो कभी पलता है आँचल के तले
एक दिन वह निर्दयी ही
फाड़ देता है उसी आँचल-अमल को
सिद्ध करने के लिए कि वह बली है
जबकि सच है कि छली है…
हे पुरुष!
पौरुष तुम्हारा है दिखावा,
हे पुरुष!
पुरुषत्व तेरा है छलावा!
— डॉ. अवधेश कुमार अवध

*डॉ. अवधेश कुमार अवध

नाम- डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’ पिता- स्व0 शिव कुमार सिंह जन्मतिथि- 15/01/1974 पता- ग्राम व पोस्ट : मैढ़ी जिला- चन्दौली (उ. प्र.) सम्पर्क नं. 919862744237 [email protected] शिक्षा- स्नातकोत्तर: हिन्दी, अर्थशास्त्र बी. टेक. सिविल इंजीनियरिंग, बी. एड. डिप्लोमा: पत्रकारिता, इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग व्यवसाय- इंजीनियरिंग (मेघालय) प्रभारी- नारासणी साहित्य अकादमी, मेघालय सदस्य-पूर्वोत्तर हिन्दी साहित्य अकादमी प्रकाशन विवरण- विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन नियमित काव्य स्तम्भ- मासिक पत्र ‘निष्ठा’ अभिरुचि- साहित्य पाठ व सृजन