गाली : एक सांस्कृतिक संपत्ति ( व्यंग्य)
गालियाँ हमारी सांस्कृतिक विरासत है। यह ऐसी देव विद्या है जिसे जिज्ञासु, बिना किसी गुरुकुल, विद्यालय-विश्वविद्यालय में गए आत्म-प्रेरणा से सीख लेता है, और लेनेवाला ‘खाता’है। हमारे देश में तो कहावत भी है-‘तोरी गारी, मोरे कान की बाली।’ गाली हमेशा दी जाती है, जिसे बोलचाल की भाषा में “बकना’ कहते हैं। इसे देनेवाला देता है। लेनेवाला किस स्तर पर लेता है, यह उसकी ग्राह्य-शक्ति पर निर्भर है। यदि गाली कान की बाली तक सीमित रही तो उसे सहिष्णुता की श्रेणी में आती है अन्यथा वह अहिंसा, असहिष्णुता और सांप्रदायिकता की परिधि को पार कर जाती है।
भारत में नारियों को देवी मानते हैं। शायद इसी धार्मिक भावना से प्रेरित होकर अधिकांश गालियों का केन्द्र नारी से संबंधित होता है। इस श्रृंखला की शुरूवात पत्नी के भाई-बहनों को ‘साला-साली’ कहकर की जाती है। शादी-ब्याह में तो हमारे गाँव में बारातियों को, विशेष कर दूल्हे के संबंधियों को थोक के हिसाब से गालियाँ दी जाती थीं। आजकल वह प्रथा बंद हो गई है। इसलिए राजनीति में वह भँड़ास निकालने की छूट है, क्योंकि इसमें भी गठबंधन होने लगे हैं।
होश संभाला है तब से यही उपदेश और शिक्षा मिलती रही कि शरीफ बनो। पिता जी के अनुसार गाली देनेवाले शरीफ नहीं होते। पिछले दो महीनों से देश में शरीफ लोगों द्वारा लगातार अबाध गति से गालियाँ दी गईं। ये शरीफ गालियाँ थीं। आप पूछेंगे भाई! गालियाँ भी शरीफ होती हैं?जी। जो गालियाँ शरीफों को शरीफो के लिए शराफत से दी जाती है, उन्हें शरीफ गाली कहते हैं। आपको मेरी बात पर भरोसा न हो तो किसी भी शरीफ आदमी से पूछ लीजिए। चुनाव प्रचार के समापन के साथ गालियों के युग का आज पटाक्षेप हो गया। मुझे हमारी विकसित हो रही इस संस्कृति पल लगाम बड़ी चुभ रही है। कम-से-कम कुछ का तो विकास हो रहा था।
भारत में लोकतंत्र है। इसका ज्ञान मुझे दो महीने पहले हुआ। लोकतंत्र की यही पहचान है कि आप किसी को भी गाली दे सकते हैं-अपनी सामर्थ्य के अनुसार। इसे संवैधानिक भाषा में ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार’कहा जाता है। इसके अंतर्गत आप देश के कई टुकड़े करने का नारा लगा सकते हैं। एक बात और
आवश्यक नहीं कि जिसे गाली दी जाए वह जीवित हो।
दिवंगत को दी जानेवाली गालियों को आप श्रद्धांजलि के रूप में ले सकते हैं।
राजनैतिक गालियों की एक विशेषता होती है-वह अश्लील नहीं होती। आप चार लोगों में माइक पर गरदन उठाकर बड़ी शान से अपने बच्चों के सामने इसे एक से लेकर लाखों की भीड़ के समक्ष बक सकते हैं। कोई बुरा नहीं मानेगा। सुधीश्रोतागण तालियाँ बजाकर आपकी गालियों का वजन तय करते हैं। यदि गाली में दम रहा तो राष्ट्रीय मान्यता मिल जाती है। फिर उसे नारे की तरह प्रयोग कर सकते हैं। गालियों के इस स्वर्णिम दौर में दो लोकतांत्रिक गालियों ने लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित किए। एक ने नहला फेंका-चौकीदार चोर है। दूसरे ने दहला रसीद दिया-तेरा बाप चोर है। बाद में प्रेम का दौर चला। क्योंकि एक के द्वारा यह समझाने का प्रयास चलता रहा कि जिसे अधिक प्रेम करते हैं उसे नियमानुसार अधिक गालियाँ दी जा सकती हैं। यह बात भूल जाइए कि मुँह से निकले हुए शब्द वापस नही आते। साहब !आधुनिक तकनीक में सब मुमकिन है। आप अपनी सुबह दी हुई गाली को शाम तक वापस ले सकते हैं। सुबह का भूला शाम तक घर लौट सकता है।
महिलाओं के मुख से गालियाँ सुनना एक अलौकिक अनुभव होता है। एक महिला द्वारा दूसरी महिला पर मर्दानी गालियों की बौछार सभ्य श्रोताओं को मैदान छोड़ने के लिए विवश कर देती हैं। ऐसी महिलाओं को सभ्य समाज अभद्र कहता है। भद्र महिलाएँ भद्र गालियाँ देती हैं जैसे-जल्लाद, हत्यारा, थप्पड़ पड़ेगा आदि।
गालियाँ सुनकर प्रतिक्रिया न करनेवाला ‘संत’ बन जाता है। तुलसीदास तो पत्नी की गाली ‘खाकर’ महाकवि बन गए थे। तुकाराम जी, नामदेव जी सब इसी श्रेणी की दिव्यात्माएँ हैं। मैं इस सुख से वंचितहूँ अब तक। तुलसी बाबा कहते थे-‘ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को सीतल करे, आपहुँ सीतल होय।।’ विगत महीनों में सूरज ने भारत भूमि का तापमान बढ़ाया तो गालियों ने लोकतंत्र का। काँटे से काँटा निकालने की तर्ज़ पर गालियों से गालियों को शीतल करने का प्रयास हमारे वाक्-योद्धा करते रहे। आपा, शीतल होने की जगह, जगह-जगह ज्वालामुखी धधकाता रहा।
मैं शिक्षक हूँ-अनादिकाल से भारतीय समाज का निरीह प्राणी। हमसे ये देश और समाज अच्छे नागरिक तैयार करने की अपेक्षा करता है। लेकिन अफसोस वह यह भूल जाता है कि बच्चा उपदेश का नहीं अपितु आचरण का अनुकरण करता है। लक्ष्मण निर्मित मर्यादा की रेखा सिर्फ सीता के लिए नहीं थी। जनप्रतिनिधियों को इसका ध्यान रखना पड़ेगा। वरना आनेवाला भारत यही कहेगा-“लक्ष्मण-रेखा तुमने लाँघी, कंचन-मृग बदनाम हो गया।”
— शरद सुनेरी