आठों पहर
उड़ते हुए बादल
लिख रहे कालिमां के स्वर
हवायों पर बैठ कौन खरीदे घर
अपनों की यातनाएं
क्या दूं उन्हें नाम
दबती अधरों पर संभावनाएं
मुड़ती उठाती जाम
आदर अनादर लिए
मौन चीखते अम्बर
सिल गए जठर आंत
आंखों में बरसात
आश्वाशनों में धुआं है
अपना कर गया घात
संवेदनायों की कीमत पर
कोई तो दे रहा मीठा जहर
पटरियों पर बिछे हैं
दम तोड़ते लोग
बर्फ की सिल्लों पर
फिसलते दहकते रोग
बेमौत कफन ओढ़े हैं
उम्मीदों के आठों पहर
— नरेंद्र परिहार एकांत