प्रकृति की दर्द
छलनी जब हुआ पर्वत का सीना
प्रकृति तब दर्द से कराह रोया है
दरक रही है जोशीमठ की धरती
मानव ने आपदा खुद बोया है
प्रकृति से छेड़खानी पड़ रही भारी
पर मानव इसे समझ ना पाया है
कहीं बाढ़ कहीं वर्फ की बिछी चादर
प्रकृति ने अपना रंज दिखाया है
जग ने किया पर्यावरण को प्रदुषित
परिणाम बुरा ही वापस आया है
गलती कब सुधरेगें मानव की
क्यों प्रकृति को जार जार रूलाया है
विकास के नाम पर हो रही दोहन
इन्सान की नासमझी से कहर आया है
बम बारूद की होड़ में खड़ा है सब
विध्वंस की मंसूबा मन में समाया है
चलने दो प्रकृति को खुद की राह पर
क्यौं प्रकृति की मंशा समझ ना आया है
युगों युगों से चल रही है कायनात जब
क्यूं इस को बाँधने की दुःसाहस पाया है
रे मानव मत रोक प्रकृति की कदम
उनको मंजिल पर उन्हें जाने तो दो
छेङखानी बड़ी देगी मुसीबत अब
रोक कर आपदा मत आने दो
— उदय किशोर साह