मुक्तक/दोहा

मुक्तक

कल सिमटी थी धूप कहीं, कोहरे के डर से,
ठिठुर रहा था सूरज भी, कोहरे के असर से।
एक हवा का झोंका, थोड़ी वर्षा आई थी,
बच गया जन जीवन, कोहरे के क़हर से।
बेंध घने कोहरे की चादर, सूरज दमका,
किरणों का माथा, उसकी ख़ूब ही दमका।
सिमटी थी ख़ुशियाँ सबकी, घर के भीतर,
खिली धूप में सिकुड़ा चेहरा, जमकर दमका।
— अ कीर्ति वर्द्धन