राजनीति

स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग

वर्तमान समय में मनुवाद (मनुवाद) शब्द को नकारात्मक अर्थ में लिया जा रहा है। मनुवाद के पर्याय के रूप में भी ब्राह्मणवाद का प्रयोग किया जाता है। असल में मनुवाद के खिलाफ बोलने वाले लोगों को मनु या मनुस्मृति के बारे में पता ही नहीं है। या वे अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का नारा लगाते हैं। वस्तुतः जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति और महर्षि मनु को दोषी ठहराया गया है, उसमें जाति शब्द का उल्लेख तक नहीं है। जब हम मनुवाद शब्द को बार-बार सुनते हैं तो हमारे मन में यह प्रश्न भी उठता है कि आखिर यह मनुवाद क्या है?

महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं। मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है। अर्थात मनु की संतान ही मनुष्य है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है। मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। (अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।

वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मण -वाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है। सेक्युलरिज्म की तरह बिना अर्थ जाने भारतीय राजनीति विशेषकर दलित राजनीति में जिन दो शब्दों का सर्वाधिक उपयोग या दुरपयोग हुआ है वे है “मनुवाद और ब्राह्मणवाद”।

अधिकांश लोगों में भ्रम है कि मनु कोई एक व्यक्ति था जो ब्राह्मण था । तथ्य यह है कि मनु क्षत्रिय थे और एक नहीं अनेक थे। कम से कम दस मनुओं का जिक्र आया है। मनु के बारे में दूसरा भ्रम मनु सिद्धान्त को मनुवाद बना देना है। सिद्धान्त और वाद में बहुत अंतर होता है । सिद्धान्त का आधार सत्य होता है जबकि वाद का आधार परंपरा या सुविधा होता है। सही बात तो यह है कि मनु स्मृति में मनु सिद्धान्त नाम की भी कोई चीज नहीं है अपितु यह आदर्श नियमों का समूह मात्र है जो क्रमशः जुडते गए। कहना नहीं होगा कि मनु स्मृति में योग्यता को सर्वोच्च माना गया है इसलिए अकर्मणय और आलसी लोगों ने इसे अपने विरुद्ध मान लिया और वे ही लोग भ्रम फैलाने में जुट गए। मनु स्मृति की मूल भावना पवित्र है, जो योग्य के योग्य का प्रतिपादन करती है।

वेदों की विधि व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति की रचना की। धर्मशास्त्र वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम है। मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। बल्कि यह केवल मानवता और मानवीय कर्तव्यों की बात करता है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित-संबंधी व्यवस्थाएँ अंग्रेजों और वामपंथियों की देन हैं। प्राचीन साहित्य में दलित शब्द नहीं है। मनुष्यों की चार जातियां नहीं बल्कि चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह से उनकी योग्यता पर आधारित हैं। पहला ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा वैश्य और चौथा शूद्र।

समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति का निर्माण किया। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है। महर्षि मनु कहते है- धर्मो रक्षति रक्षित:। अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यदि वर्तमान संदर्भ में कहें तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है।

जिन्हें हम वर्तमान समय में धर्म कहते हैं दरअसल वे संप्रदाय हैं। धर्म का अर्थ है जिसको धारण किया जाता है और मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय हैं। संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि नितांत गलत है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह ‘ड्यूटी’ हो सकता है। कानून ड्‍यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है।

मनु ने भी कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। इसीलिए समाज में विसंगतियां देखने को मिलती हैं। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है।

वर्तमान सन्दर्भ में भी यदि हम शासन व्यवस्था को देखें तो प्रशासन चलाने के लिए लोगों को चार श्रेणियों – प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ में विभाजित किया गया है। महर्षि मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम वर्ण को ब्राह्मण, दूसरे को क्षत्रिय, तीसरे को वैश्य और चौथे को शूद्र रख सकते हैं।
मनुस्मृति 10/65 में महर्षि मनु कहते हैं कि- एक ब्राह्मण अपने गुणों, कार्यों और क्षमताओं के आधार पर शूद्र बनता है और इसके विपरीत। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य के बीच भी ऐसा आदान-प्रदान होता है। मनु के विधान के अनुसार यदि ब्राह्मण की संतान अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार वर्ग चार या शूद्र बनता है। इसी प्रकार चतुर्थ श्रेणी के बच्चे या शूद्र योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी या ब्राह्मण बन सकते हैं।

हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण हैं जब कोई व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ऋषि बने। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। भारतीय इतिहास में ऐसे और भी कई उदाहरण हमारे सामने हैं, जो स्वतः ही मनु के दलित विरोधी होने के आरोपों का खंडन करते हैं। संक्षेप में, “मनुष्यवाद को मानने वाले स्वत: ही मनुवादी होते हैं।”

मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है। मनुस्मृति एक ही मनुष्य जाति को मानती है। उस मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।

ब्राह्मणवाद मनु की देन नहीं है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा भ्रष्ट तरीके अपनाकर अपनी अयोग्य संतानों को आगे बढाएं। इसके लिए तत्कालीन समाज या फिर व्यक्ति ही दोषी हैं। उदाहरण के लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए की थी, लेकिन बाद में राजनीतिक स्वार्थों के चलते इसे आगे बढ़ाया जाता रहा। ऐसे में बाबा साहेब का क्या दोष?

मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दश: भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ। पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा। मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए। तभी लोगों की धारणा बदलेगी।

दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के नाम से दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है। पंडित और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है। यहां ब्राह्मण से मतलब श्रेष्ठ व्यक्ति से न कि जातिगत। आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लिए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है। ऋषि दयानंद की संस्था आर्यसमाज में हजारों विद्वान हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। इनमें सैकड़ों पूरोहित जन्म से दलित वर्ग से आते हैं। (देश के प्रसिद्ध धर्म शास्त्र विद्वानों से बातचीत पर आधारित)

— प्रियंका सौरभ

प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh