विवेक की कांवड़ उठाओ
मैंने देखा —शिव की गूंज में डूबेकंधों पर उठाए भक्ति के भार,पर आंखों मेंज्ञान की उजास नहीं थी…बस नशा था
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Read Moreबचपन में हम सुनते थे कि साध्वी वह होती है जो मोह, माया, श्रृंगार, आकर्षण और सांसारिक जिम्मेदारियों से ऊपर
Read Moreझूले की डोरी से उलझे हैं प्रश्न,हर सावन में मैं स्वयं से टकराती हूँ।मेंहदी रचती हूँ हथेली पर,पर हथेली खुद
Read Moreकोख में किसी बच्चे की पहली चीख, बाहर आने के बाद की नहीं होती। वह तो भीतर ही कहीं, सिसकती,
Read Moreकोख की दीवारों से आतीधीमी-धीमी हिचकियाँ,जैसे कोई जीवनमौत से पहले पूछ रहा हो —“क्या मेरा अपराध सिर्फ़ बेटी होना है?”
Read Moreकुत्ते को गाड़ी में बैठा दिया,बापू को धूप में छोड़ दिया।पंखा चला कुत्ते की खातिर,माँ को पसीने में तोड़ दिया।
Read Moreहम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ स्क्रीन पर दिखना असल में जीने से ज़्यादा जरूरी हो गया
Read Moreहरियाणा में केवल तीन महीनों में एक हज़ार एक सौ चौवन गर्भपात। कारण – कन्या भ्रूण हत्या की आशंका। छप्पन
Read Moreकांवड़ यात्रा का स्वरूप अब आस्था से हटकर प्रदर्शन और उन्माद की ओर बढ़ गया है। तेज़ डीजे, बाइक स्टंट,
Read Moreहर दोपहर कविता कहती — “मैं आराम कर रही हूँ।” पर हकीकत में वह रोती थी — टिफ़िन बनाते समय
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