महक परांठे की
सुबह शाम पड़ती है भैया
ठंड कड़ाके की।
और रात की ठंडक तो है,
धूम धड़ाके की।
सुबह-सुबह की हालत तो मत,
पूछो रे भैया।
सी-सी करते बदन काँपता,
है मोरी दैया।
राह कठिन सच में होती है,
हाय बुढ़ापे की।
मफलर स्वेटर काम न आये,
दाँत बजे कट-कट।
अदरक वाली चाय पी रहे,
लोग सभी गट-गट।
कई होटलों में महफ़िल है,
गप्प सड़ाके की।
रखी अंगीठी बीच कक्ष में ,
घर-भर ने घेरा।
“भूख लगी है” बच्चे सारे,
लगा रहे टेरा |
उड़ा रहीं अम्मा रसोई से,
महक परांठे की |
— प्रभुदयाल श्रीवास्तव