नवगीत
चादर में
सोया है
मटमैला गाँव।
सोहर से
आई है
शैशव की चाँव।।
अगियाने
सुलगाए
बैठे हैं लोग।
सेज सजी
दुलहे सँग
दुलहिन संयोग।।
शीतल है
धरती तल
ठहरे कब पाँव।
छूना मत
तन मेरा
सता रही ठंड।
जाग रही
मधुशाला
बके अंड – बंड।।
साहस है
उसका जो
लगा दिया दाँव।
चूँ -चूँ की
शावक ध्वनि
गुंजायित छान।
लहराते
खेतों में
मदमाते धान।।
मुंडगेरी
मुस्काती
कागा की काँव।
ओस लदी
पीपल दल
टपकीं बहु बूँद।
गाती क्यों
कोयलिया
चंचू ली मूँद।।
बरगद तल
बैठी है
लुका – छिपी छाँव।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’