पर्यावरण

पशु क्रूरता कानून कितना न्याय संगत ?

सरकार द्वारा हिंसा को प्रोत्साहन अनुचित –
आज राज्याश्रय के कारण हमारी संस्कृति जो मुगलों एवं अंग्रेजों के शासन काल में भी जितनी प्रभावित नहीं हुई उतनी स्वतंत्र भारत में नष्ट हो रही है। हमारी गलत नितियों के कारण आज हम ऐसी स्थिति में पहुँच गये है कि तनिक भी लापरवाही एवं उपेक्षावृत्ति से हमारा अध्यात्म स्वरूप पूर्णतः नष्ट हो सकता है। जो भारत भूतकाल में विश्व का आध्यात्मिक गुरु था। अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा, दया, परोपकार जैसी वसुदैव कुटुम्बकम् की भावना का संदेशवाहक था, उसी भारत से आज हिंसा, क्रूरता, अनैतिकता एवं पशुओं के साथ विश्वासघात का निर्यात हो रहा है।
आज चारों तरफ हिंसा, आतंक, लूट, क्रूरता, निर्दयता एवं बदले की भावना तीव्र गति से क्यों पनप रही है? सरकार के सारे प्रयास अपेक्षित परिणाम लाने में क्यों असफल हो रहे हैं? जिस पर पूर्वाग्रह छोड़ सम्यक् चिन्तन की आवश्यकता है? सरकार मांसाहार प्रचार एवं भारतीय संस्कृति की मूल अहिंसा की भावना को नष्ट करने वाली कम्पनियों को ताजा मांसाहार उपलब्ध कराने हेतु आमंत्रित कर रही है, ताकि गांव-गांव और घर-घर में चाय, बीड़ी, सिगरेट की भांति ताजा मांस उपलब्ध कराया जा सके। विदेशी मुद्रा के लालच में नये-नये यांत्रिक बूचड़खाने खोल मांसाहार का निर्यात करने तथा पशुधन को विदेशों में मांस की खपत को पूरा करने, बेचने जैसे अमानवीय, अकरणीय, घृणित कार्यों में हमारी लोकप्रिय कहलाने वाली सरकार अत्याधिक रुचि लेकर प्रोत्साहन दे रही है। भविष्य में पशुओं के पड़ने वाले दुष्काल की तरफ सरकार बेखबर हैं। संसद में जब मांसाहार को प्रोत्साहन देने की योजनाओं पर चर्चा हो उस समय हमारे जन-प्रतिनिधि स्वार्थवश दलों के निर्देशानुसार मूक श्रोता बने रहें तो ऐसे जनप्रतिनिधि जनभावनाओं का कितना प्रतिनिधित्व करते हैं? हमारा कत्र्तव्य है कि ऐसे राजनेताओं को सजग करें ताकि वे अपना दृष्टिकोण बदल दलगत भावनाओं से ऊपर उठ मानवीय भावना का आदर करना सीखें। भगवान् से हम प्रार्थना करें कि उन्हें सद्बुद्धि दे तथा उनकी सुषुप्त आत्मा को जगावे ताकि सदैव अमर रहने का उनका भ्रम समाप्त हो। राष्ट्र की स्थिति का चित्रण करते हुए कवि ने मार्मिक शब्दों में अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति करते हुए कहा-
खूनियों के पंजे में उलझ गया देश, गोलियों की गर्मी से झुलस गया देश।
फिर भी मुझे जीतना है, वोट चाहिये, मुझको मेरा कत्र्तव्य नहीं,कुर्सी चाहिये।।
पशु क्रूरता निवारण कानून की विसंगतियाँ-
सरकार पशुओं के कल्याण हेतु जनचेतना जागृत करने के लिए प्रतिवर्ष 14 जनवरी से 29 जनवरी तक राष्ट्रीय स्तर पर पशु कल्याण पखवाड़ा मनाती है। पशु क्रूरता निवारण समितियाँ इन दिनों में बच्चों की रेलियों, भाषण प्रतियोगिताओं, निबंध प्रतियोगिताओं का आयोजन कर अपना कत्र्तव्य पूर्ण समझ रही हैं। पशु कल्याण विभाग ;।दपउंस ॅमसंितम ठवंतकद्ध बनी हुई है, जिसके अन्तर्गत पशु क्रूरता निवारण समितियां कार्यरत हैं। अहिंसा प्रेमियों द्वारा पशुओं के संरक्षण हेतु सैंकड़ों स्वयंसेवी संस्थायें संलग्न हैं। फिर भी दिन-प्रतिदिन भारत में पशुक्रूरता तीव्र गति से बढ़ रही है। भारत में पशुक्रूरता निवारण कानून बना हुआ है। जिसके अन्तर्गत पशुओं पर हो रहे अत्याचारों, क्रूरता, बर्बरता, निर्दयता करने वालों पर दण्ड का प्रावधान है। परन्तु इन मूक, बेबस, बेसहारा प्राणियों को उन कानूनों का लाभ नहीं मिल रहा है। कानून के अन्तर्गत पशुओं को प्रताड़ित करना, उनके साथ क्रूरता करना, उन पर अधिक बोझ लादना, ट्रकों में ठूंस-ठूंसकर भरना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय उनको कष्ट पहुँचाना कानूनी अपराध है। परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि उनको जान से मार देने पर कोई दण्ड का प्रावधान नहीं है। बूचड़खाने पशु क्रूरता कानूनों का खुला उल्लंघन हैं। पशु मेलों से बूचड़खानों तक पशुओं को पहुँचाने के पूर्व अधिकारियों से वध करने योग्य पशु का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने एवं पशुओं के वध करने की जो प्रक्रिया है, वह सब कानून की धज्जियां उड़ा रही है। मानों खेत ही बाड़ को खा रहा है। कानून बनाने एवं उसकी रक्षा हेतु जिम्मेदार सरकार खुले आम पशुक्रूरता कानून का गला घोंट रही है। कभी-कभी तो मांसाहार करने वाले या पशुओं पर दया न रखने वाले पशु कल्याण विभाग के उच्च पदाधिकारी बन जाये तो भी आश्चर्य नहीं। कानून की विसंगतियों एवं कार्य के अनुरूप योग्यता का मापदण्ड न होने से हमारे राष्ट्र में पशु कल्याण विभाग का कार्य सम्हालने वाले सर्वोच्य पदाधिकारी को मांस निर्यात को प्रोत्साहन देने वाले विभाग का दोहरा दायित्व दे दिया जाये तो भी आश्चर्य नहीं।
पशु-पालन विभाग पशु-मारण की योजना बना रहे हैं। पश्चिम का अन्धानुकरण कर आज खरगोश, मछली, अण्डों की खेती जैसी भ्रामक शब्दावली बनाकर जानवरों के प्रति करुणा, दया व प्रेम की भावना मिटाई जा रही है। आश्चर्य तो इस बात का है कि ये सारे कार्य कानून की आड़ में किये जा रहे हैं।
प्रकृति की उपेक्षा करने वाला कानून असंगत-
संविधान में भारत के नागरिकों को मनपसन्द व्यवसाय करने का प्रावधान है। 23 अप्रेल 1956 का दिन भारत के पशु जगत् के लिये काला दिन था। इस दिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मानव की करुणा, दया, संवेदना, अहिंसा, प्राणीमात्र के प्रति सभी महापुरुषों द्वारा मैत्री एवं प्रेम के उपदेश तथा जीओ और जीने दो के संदेश को अनदेखा कर पशुवध को भी अपने मनपसन्द व्यापार के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया। परन्तु पशु-हत्या व्यापार और व्यवसाय नहीं हो सकता। यह मानवता पर कलंक है। पाश्विकता का द्योतक है। यदि पशु-हत्या मनपसन्द व्यापार है तो फिर भविष्य में विदेशों से अवैध रूप से विदेशी सामान लाना, जुआ-खोरी, वेश्यावृत्ति, चोरी, डकैती, आतंक जैसे अमानवीय कार्यों को भी मनपसन्द व्यापार की श्रेणी में बतलाया जावें तो भी आश्चर्य नहीं? संविधान की ऐसी विसंगतियों को सजग जनप्रतिनिधियों द्वारा दूर करवाना चाहिये और हत्या, क्रूरता, बर्बरता, निर्दयता,अत्याचार जैसे शब्दों की सरकार को स्पष्ट व्याख्या करनी चाहिए। जो प्राण हम दे नहीं सकते उन्हें लेने का किसी को अधिकार नहीं। सरकार संविधान की आड़ में मायाचार, अनैतिकता, हिंसा को प्रोत्साहन न दे। पद एवं पैसों के लिये असहाय मूक पशुओं की निर्मम हत्या को बढ़ावा अज्ञानता का प्रतीक है। जब किसी का आर्शीवाद हमारा मंगल कर सकता है तो मृत जानवरों की बद्दुआएँ राष्ट्र के अमन चैन का सत्यानाश करने का हेतु बनें तो आश्चर्य नहीं। जानवर बेजुबान भले ही हों- बेजान नहीं है।
— डाॅ. चंचलमल चोरडिया

डॉ. चंचलमल चोरडिया

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