यादें
ननिहाल की बात ही अलग होती थी साल भर इंतजार करने के बाद महीने भर की छुट्टी और उन गर्मी की छुट्टियों में साल भर का प्यार का मिल जाता था वो दौर ही अलग था लोगों के मकान छोटे और दिल बड़े हुआ करते थे । घड़ी सिर्फ़ नाना जी के हाथों में हुआ करती थी और वक्त्त सभी के पास अल्हड़ था बचपन बिल्कुल बेबाक और कल से अपरिचित ,सभी का मकसद एक साथ इक्कठे होकर छुट्टियां मनाना । माँ की अपने भाई बहनों के साथ अलग टोली और हम बच्चों की अलग । दूर कहीं नाना जी के रेडियो पर समाचार और सदाबहार नग्मों की आतीं हुई आवाजें और इन्तजार रहता बिनाका गीत माला । अनगिनत सवाल, कौतुहल और मासूमियत भरी बोझिल आंखों से आकाश को अपनी आंखों में भर कर , माँ की गोद में हल्की थपकी लेते हुए सो जाना ।
कितना सजीव था…….नानी माँ के हाथों से बना स्वादिष्ट भोजन आज तक कहीं और नहीं मिल पाया अक्सर गुनगुनाते हुए खाना पकाती थी। मुझे देखते ही मुस्करा कर चुप हो जाती फिर बड़े प्यार से मुझे गर्म रोटियां सेंक कर एक के बदले दो खिला दिया करती थीं । नानी के चेहरे की झुर्रियों पर परियों और लोक कथाओं का डेरा रहता था ।
कच्ची रसोई में कितनी पक्की रंग वाली यादें बन गई पता ही नहीं चला ऐसा लगता है कल की ही बात है । हर जन्मदिन मुझे उम्र के साथ साथ बीती यादों के एहसास से गहरी तरह परिचित कराता जाता है।
आज उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी वह गुजरा समय बहुत याद आता है।
— डा. मधु आंधीवाल