मत समझना दुनिया वालो हमें नाजुक अपनी तरह
आता है हमें आज भी प्यार को बखूबी निभाना /
मिले हैं जो जख्म हमें बिना जुर्म किये बचपन से
न दिल तोड़ेंगे कभी हम बेबफा बनकर तुम्हारी तरह/
काश जज्बात को नापने का कोई मीटर होता ,
जान पाते गर तुम मेरे दिल का हाल ,अच्छा होता /
जीवन की सच्चाइयों से जीतने का टॉनिक होता ,
पा जाते गर हिम्मत आँसूओं को पीने की, अच्छा होता /
जीवन के अधूरेपन को सोचा था पूरा कर लूँगी ,
ससुर के रूप में गर पिता को पाती, अच्छा होता /
सास को न समझा था कभी हमने दूसरी माँ ,
मिला होता गर उनसे भी माँ का प्यार, अच्छा होता/
देवरों के रूप में भाइयों को खोजना गलती थी,
कभी प्यार से गर भाभी सुनती , अच्छा होता /
बहन जैसे ही तो होती हैं ननद और देवरानियां
काश हमें भी बहन माना होता , अच्छा होता /
दामाद को कब माना था अपने बेटों से कमतर ,
दामाद ने भी गर माँ समझा होता ,अच्छा होता/
सात फेरों का पवित्र बंधन जीवन भर निभाया ,
पत्नी को भी गर सच्चा दोस्त बनाते, अच्छा होता /
दोस्ती जैसा रिश्ता अजूबा ही तो है दुनिया का ,
हमें भी गर कृष्ण ने सुदामा माना होता तो अच्छा होता /
बच्चों के साथ गुजार दी तमाम उम्र हसरतों के साथ,
ढलती शाम में गर बच्चों का साथ होता, अच्छा होता /
आज आयी है फिर से इम्तिहान की घड़ी जीवन में ,
बहू को बेटी मान लोगे तो कितना अच्छा होगा /
बहू और बेटी का सदियों पुराना अंतर मिटाना होगा ,
बेटी भी सास को माँ बोले तो कितना अच्छा होगा/
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़