रोग के क्षणों में समाधि कैसे रखें?
जब-जब रोग में बैचेनी महसूस हो, संकल्प-विकल्पों से मन घिर जायें। शरीर की आसक्ति मन को बैचेन करें, ऐसे रोग के क्षणों में शुभ भावों से प्रभु का नाम स्मरण करने से आत्मा का भव रोग दूर हो जाता है। उस समय प्रभु का नाम हर क्षण अन्तर में गूंजता रहें। हर क्षण यह याद रहें कि मेरा स्वरूप व प्रभु का स्वरूप एक समान है। मैं सिद्धों के जैसी आत्मा हूँ। शरीर रोगों का घर है, इस शरीर के रोम-रोम में रोग छिपे हंै। जरा सी असावधानी हुई के शरीर में छिपे रोग बाहर आ जाते हैं। ‘‘शरीरं व्याधि मन्दिरम्।’’ तू चाहता है मेरा शरीर सदा निरोग व हृश्ट-पुश्ट बना रहे। इसमें किसी प्रकार का रोग न आये, यह कैसे हो सकता है। फिर तू क्यों इससे इतनी ममता, आसक्ति व मूच्र्छा करता है। यह नश्वर है। सदा रहने वाला नहीं है।
यह शरीर रोग व बीमारियों का घर है, मिट्टी का कच्चा घड़ा है। कच्चे घड़े में पानी कब तक टिकेगा। शरीर बनने में भले ही पूरे नौ महीने लगते हैं, पर मिटने में एक क्षण भी नहीं लगता। इसलिए अचानक किसी असाध्य रोग के होने पर आश्चर्य मत करना। अचानक ब्रेन हेमरेज हो जाये, कैंन्सर या हार्टअटैक हो जाये या लीवर या किड़नी खराब हो जाये या अचानक श्वास रुक जाये। शरीर पर कैसा भी कष्ट आ जाये, उसे समभाव से सहन करने का अभ्यास मुझे करना है। शरीर की आसक्ति कम हो, ऐसा पुरुषार्थ मुझे करना है। पीड़ा व वेदना के क्षणों में मुँह से कभी आह न निकलें। आंखों में आंसू न आयें। दुःखों से, रोग से मुझे जल्दी छुटकारा मिले, ऐसी चाह भी न जगे। बल्कि ऐसा सोचे कि पूर्व में मैंने जिन-जिन कर्मो का बंध किया है, उसका भुगतान मुझे करना ही होगा। फिर रोते-रोते क्यों हंसते-हंसते समभावों से ही उसे सहन करूँ, जिससे नये कर्मो का बंध न होगा। कर्म रूपी ऋण से मुझे जल्दी से जल्दी छुटकारा मिलेगा।
यदि शरीर में बीमारी आई है तो यह न सोचे कि यह कब जायेगी? या नहीं जायेंगी। कभी जुकाम हो गया तो व्यक्ति सोचता है कि ज्वर न आ जाये। यदि ज्वर आ गया तो सोचता है कि डेंगू या चिकनगुनिया न हो जाये। यदि पेट दुःखता है तो सोचता है कि अपेन्डिक्स तो नहीं हो गया। यदि सीने में जरा सा दर्द हो गया तो विचार करता है कि ‘‘हार्ट अटैक’’ न हो जाये। ऐसी सोच व विचार दुःख को अधिक बढ़ाते हैं। जीवन में ऐसे दुःख यदि आ जाये तो दुःख से दुःखी मत बनो। अभी किसी को थोड़ी सी खांसी या श्वास की तकलीफ शुरु हुई और बुखार आ गया तो ‘‘कोरोना’’ का भय सताने लगा। इस तरह रोग होने पर चिंता को मन पर सवार न होने दो। बल्कि सोचो कि अशुभ कर्म के उदय से रोग हुआ है। इस रोग को बदलने की शक्ति मुझ में नहीं है, पर मैं अपने विचारों को मोड़कर शान्ति व समाधि रख सकती हँू। यदि मौत सचमुच आ ही गई है तो भागकर जाऊँगी कहाँ? उसको भी समभाव से स्वीकार कर मृत्यु को महोत्सव बनाऊँ। जब विचारों में मोड़ आता है, सोच सकारात्मक होती है तो दुःख में से सुख, विषमता में समता का स्रोत फूट पड़ता है। वास्तव में सुख व दुःख हमारे मन के ही प्रतिबिम्ब हैं। हम जो चाहते हैं वही सुख है और जिससे नफरत करते हैं वही दुःख है। सुख हमारे मन की कल्पना है और आनन्द आत्मा का स्वभाव है। मन व विचारों के प्रवाह को मोड़कर अन्तर के पट खोलो और उस आनन्द को प्राप्त करो।
माँ के गर्भ में सवा नौ महिने गर्भावास की पीडा भुगत कर मेरा यह जीव आया है। वहाँ कैसी दुर्गन्ध से भरी व संकड़ी काली कोठरी थी। नौ महिने औंधा लटककर वहाँ मैंने वेदना सही। वहाँ न खिड़की थी, न पंखा, न ए.सी. व कूलर था। किन्तु आज इस छोटे से रोग ने मुझे बैचेन कर दिया और उसकी वेदना को मैं सहन नहीं कर पायी। अस्पताल में जाने पर पता चलता है बेचारे दर्दी दर्द से कैसे कराहते हैं। किसी का पैर कटा है तो किसी का हाथ। कोई कैंसर से पीड़ित है तो कोई हृदय रोग से तड़फता दिखाई देता है। कोई जल गया है तो किसी के अंग भंग हो गये हैं। इस तरह संसार में जितने भी रोग, दुःख व पीड़ाएं हंै, उन सबको मेरी आत्मा ने इच्छा-अनिच्छा से, परवशता में अनेक बार सहन किये हैं। इस आत्मा ने इस प्रकार के अनन्त दुःख नरक, तिर्यंच आदि गतियों में सहन किये हैं, इनके सामने यह दुःख कुछ भी नहीं है। चार गति रूप दुःखों के सागर इस संसार में सुख कहा है। जिन्हें हम सुखी समझते हैं, वे भी दुःखी ही है।
अभी यह शरीर सुन्दर व स्वस्थ दिख रहा है, पर अगले क्षण इस शरीर में सैंकड़ों व्याधियां हो सकती हैं। जिसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते। इस प्रकार यह शरीर रोग व दुःख का घर है। हजारों व्याधियों के उत्पन्न होने की भूमि है। यह शरीर हाड़ रूपी काठ के आधार पर टिका हुआ है। नाड़ियों और नसों से जकड़ा हुआ है। मिट्टी के कच्चे बर्तन की तरह कमजोर है। अशुचिमय पदार्थो से भरा है। जन्म-जरा-रोग-मृत्यु का टूटा फूटा झोपड़ा है। सड़ना, गलना और नष्ट होना इसका स्वभाव है। मल-मूत्र, कृमि आदि का यह कारखाना है। ये ही कारण है कि अच्छी से अच्छी कीमती वस्तु डालने पर भी यह उसे दुर्गंधमय बना देता है।
रोग के आने पर सोचो कि इस समय मेरे अशुभ कर्मो का उदय हुआ है। इसलिए मेरे शरीर में असहनीय पीड़ा हो रही है। यह पीड़ा कर्मजन्य है। शरीर में हो रही है, मैं तो मात्र उसका वेदन कर रही हूँ। जैसे-जैसे कर्म मेरी आत्मा ने बांधे हैं उसका फल तो मुझे भुगतना ही होगा। जो कर्मो का कर्जा मैंने लिया है, उसे चुकाना ही होगा। फिर रो-रोकर क्यों? शान्त भाव से समभाव रखकर उन कर्मो के कर्जो को चुकाना है तभी मैं कर्माे से मुक्त बन सकती हूँ।
ऐ आत्मन्! चिन्तन-मनन कर अशुभ कर्म के उदय से जो रोग शरीर में आया है, हाय-हाय करने से क्या वह रोग चला जायेगा। या तेरा दुःख दूर हो जायेगा? नहीं, हाय-हाय करने से दुःख कम नहीं होगा, बल्कि बढ़ जायेगा। अतः कैसा भी कष्ट या रोग शरीर में आये, मुझे समभावों से सहन करना है।
यह रोग तो मेरी साधना को उज्ज्वल बनाने के लिये आया है। दुःख, रोग, असाता मुझे मजबूत बनाने के लिए आते हैं। ये दर्द, पीड़ा मेरी सहनशीलता की परीक्षा लेने आते हैं। मुझे सजग एवं जागृत बनाने के लिए आते हैं। मेरे जीवन को सुन्दर और श्रेष्ठ बनाने के लिए आते हैं। मुझे शरीर और रोगों की चिन्ता करके दुःखी नहीं होना है। बल्कि आत्मा में लीन बनने का पुरुषार्थ करना है। दुःख के समय धैर्य रखने से कर्म का फल भोगते हुए भी नये कर्मो का बंध नहीं होता। ज्ञानी भगवन्त कहते हैं कि अशुचि से भरे इस तन का सार यही है। तू चाहे तो इसी शरीर से मोक्ष प्राप्त कर सकता है। हमें जो यह देह मिली वह व्यर्थ न जाए। इस गोल्डन चांस को पाकर, समभाव एवं सहनशील बनकर शुद्ध भावों से मुक्ति की साधना करनी चाहिए। यह देह भले ही अपवित्र है, वीभत्स है, अशुचि का भण्डार है, मल-मूत्र की खान है, रोगों का घर हैं, पर मुक्ति नगर में पहुँचाने वाली है, अतः दुर्लभ है। इस देह के द्वारा सर्वविरति धर्म की आराधना करके अपने समस्त कर्म बन्धनों को काटकर मुझे सिद्ध-बुद्ध और मुक्त बनना है।
जब शरीर रोगों से घिर जाता है, तब स्वयं को ही पीड़ा भोगनी पड़ती है, उस समय उस दर्दी के दर्द को कौन बांट सकता है। सुख में भले ही सब भागीदार बनते हंै पर दुःख में कोई साथ नहीं निभाता है।
कहना बहुत सरल है पर जब काया में तीव्र वेदना हो रही हो, उस समय मन में अच्छे विचारों का आना मुश्किल है। बीमारी भले ही थोड़ी देर की हो, पर वह हमारे विचारों में हलचल कर, मन को हिला देती है। ऐसी स्थिति में हम क्या चिंतन करें-
युद्ध के मैदान में एक सैनिक घायल पड़ा है, शरीर गोलियों से छलनी-छलनी हो गया, उस समय भी उसके मुख पर हास्य की लकीरें देखी जा सकती हैं। कारण क्या उसके शुभ विचार ‘‘अब भले ही मेरी मृत्यु हो जाये, लेकिन मातृभूमि की रक्षा तो हो रही है।’’ पूर्व कर्म के उदय के कारण जीवन में दुःख व विपत्ति आती है। जो भी बीमारी या दुःख आया है वह मेरे ही पूर्वभव के पाप का फल है। मैं इस समय धर्म में स्थिर बनकर समभाव रखकर इसको सहन करूँ। दुःख में धैर्य रखने से व रोग को स्वीकार करने से रोग आधा हो जाता है।
शरीर जब-जब अस्वस्थ बनें, मन जब शिथिल होने लगे, तब हम शालिभद्र जी को याद करें, धधकती हुई गर्म शिला पर लेटकर संथारा कर लिया। उस समय वे कौनसा विचार करते थे- ‘‘गर्म ताप मेरे शरीर को जला सकता है, पर मेरी आत्मा को नहीं। यह ताप मेरी कर्म-निर्जरा में सहायक बन रहा है।’’
धन्य है गजसुकुमाल मुनि को, जिनके सिर पर धधकते अंगारे रख दिये, खोपड़ी खिंचड़ी की तरह सींझ रही है पर वे आत्मचिंतन में लीन हैं। ऐसा ताप मैंने नरक में कितनी बार सहन किया, उन दुःखों के सामने यह दुःख कुछ भी नहीं है।
खंदक मुनि जी के शरीर से चमड़ी उतारी जा रही है व खंदकऋशि के 500 शिश्य घाणी में पीले जा रहे हैं, पर वे क्या विचार कर रहे हैं। ये उपसर्ग तो मुझे मोक्ष में ले जाने के लिये ही आया है।
धन्य है मैतार्य मुनि को। गीला चमड़ा सुनार द्वारा लपेटा जा रहा है, धूप में खड़े हैं चमड़ा सूखने के कारण असीम वेदना, आँख के डोले बाहर निकल आये, फिर भी सुनार के प्रति कोई रोश नहीं है।
धन्य है चण्डकोशिक सर्प को, दूध की मिठास के कारण चींटियों ने शरीर को छलनी-छलनी कर दिया, पर समभाव रखकर, मुँह बिल में डाल दिया व शांत बन गया।
धन्य है परदेशी राजा को, पत्नी ने भोजन में जहर मिला कर प्राण हरण कर दिया, पर रानी पर जरा भी क्रोध नहीं। इन सब महापुरुषों ने कभी किसी का भी प्रतिकार नहीं किया। धैर्य से सभी वेदना को सहन किया। मुझे भी जब वेदना और बैचेनी महसूस हो, मन संकल्प-विकल्प से घिर जाये, शरीर की आसक्ति मन को बैचेन करे, उस समय प्रभु महावीर को याद करना है कि कैसे घोर कष्टों को सहन किया, पर मुँह से उफ तक न किया।
दुःखों के इस संसार सागर में सुखों का नामोनिशान नहीं है। अपने स्वार्थ में बाधक बनने पर कौणिक अपने ही पिता को जेल में बंद कर पांच सौ कोड़े रोज मारते थे। इस संसार की यही वास्तविकता है। यहाँ हर कोई किसी न किसी कारण से दुःखी है। कोई तन से दुःखी है, कोई मन से दुःखी है तो कोई धन से दुःखी है। चारों ही गतियों में जन्म-जरा-मरण, आधि-व्याधि- उपाधि के दुःख भरे पड़े हैं। सुख में हर कोई भागीदार बन सकता है, पर दुःख तो मुझे मुक्ति के नजदीक ले जाने के लिये आया है। प्रभु महावीर के जीवन में कितने दुःख, कश्ट व उपसर्ग आये। समभाव से सहन करने के कारण ही वे जन्म-मरण से मुक्त हुए। मुझे भी समभावों में रहकर, ज्ञाता-दृश्टा बनकर इस वेदना को सहन करना है, यहीं मेरे लिये हितकर है।
इन महापुरुषों के शरीर में वेदना हो रही थी, पर मन शांत एवं विचार शांत थे। वेदना रोग की दासी है। रोग शरीर के अधीन है। शरीर कर्म के अधीन है व कर्म भूतकाल के शुभ-अशुभ भावों के आधीन है। मुझे दुःखी बनाने वाला कोई दूसरा नहीं। ये सब निमित्त हंै। कर्म शरीर को माध्यम बनाकर वेदना उत्पन्न करता है। जो अज्ञानी होते हैं वे रोग, कर्म, शरीर व निमित्तों को दोश देते हैं। निमित्त तो सदा निर्दोश होते हैं। जब तक मैं स्वयं दुःखी नहीं होऊँ, मुझे कोई दुःखी कर नहीं सकता। सुखी-दुःखी होना मेरे स्वयं के हाथ में है। जो दिखाई देता है, मन उसी को दोश देता है यह मन का स्वभाव है। यहीं आगे जाकर आत्र्तध्यान का कारण बनता है।
‘‘मेरे शरीर को रोग ने घेर लिया है, मुझे पीड़ा हो रही है।’’ ऐसे विचार असमाधि के कारण बन जाते हैं। रोग शरीर में है पर असमाधि मन में है। ‘‘मेरे भूतकाल की असमाधि ही मेरे वर्तमान की पीड़ा का कारण है। आज यही असमाधि भविश्य की पीड़ाओं को जन्म देने का कारण बनेंगी। यह रोग तो मेरी साधना को उज्ज्वल बनाने के लिये आया है, मुझे कर्म के कर्जे से मुक्त बनाने के लिये आया है। दुःख-असाता मुझे मजबूत बनाने के लिये आती है। ये दर्द, पीड़ाएँ मेरी सहनशीलता की परीक्षा लेने आते हैं। मुझे सजग बनाने के लिये आते हैं। दुःख मेरे जीवन को सुन्दर व श्रेश्ठ बनाने के लिए आते हैं। मुझे जागृत करने के लिये आता है, दुःख में ही भगवान अधिक याद आते हैं। सुख में भगवान कहाँ याद आते हैं।
मैं अजर, अमर, शाश्वत आत्मा हूँ, मेरा जन्म भी नहीं होता व मेरी मृत्यु भी नहीं होती। आत्मा को रोग घेर नहीं सकता। जन्म-जरा-मरणादि-रोग सब शरीर के स्वभाव से जुड़े हंै। शरीर है तब तक ये सब दुःख बनें रहेंगे। मुझे शरीर की चिंता करके दुःखी नहीं होना है, बल्कि आत्मा में लीन होना है। जब हम शरीर की चिंता करते हैं तो आत्मा का सुख भूल जाते हैं। इसी प्रकार जब हम आत्मा की चिंता करेंगे तो शरीर के दुःख अपने आप कम हो जायेंगे। मुझे शरीर मिला है अपने कर्मो के कारण। कर्म हमारी जन्म-जन्म की अतृप्त इच्छाओं के कारण बंधते हंै। इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होती। बीमारियाँ हमारी इच्छाओं के कारण पैदा होती हैं। इच्छा जैसा कोई रोग नहीं। इच्छाएँ हंै वहाँ दुःख है। पूरा संसार इच्छाओं पर खड़ा है। आत्म-विचार, आत्मा की चिंता, आत्मा का उपचार, ये सब बातें शुभ भावनाओं से ही संभव हैं, मेरी सकारात्मक सोच पर निर्भर है। इच्छा मुक्ति का भाव ही शुभ भाव को जन्म देता है।
हे आत्मन्! असार दुःखों के सागर रूप इस संसार में सुख पाना है तो ऐसा सम्यक् चिंतन करके दुःख को हल्का कर सकते हो-
1. जो भी दुःख आया है वह मुझे कर्मो के कर्जे से मुक्त करने के लिये आया है। इस दुःख को समता से सहन करने से मेरे नये कर्मो का बंध नहीं होगा। मुझे कर्म-ऋण से मुक्ति मिल जायेगी।
2. दुःख में दुःखी होने से या आत्र्त-रौद्रध्यान करने से मेरे नये कर्मो का बंध हो जायेगा। यदि मुझे भव- परम्परा को समाप्त करना है तो सहनशील बनकर, समभाव रखकर इस दुःख को झेल लूँ।
3. इस संसार में बहुत से दुःखी व रोगी व्यक्ति हैं उनके दुःख के सामने मेरा दुःख कुछ भी नहीं है।
4. इस असाता वेदनीय के उदय को हंसते-हंसते सहन करूँ, चाहे रोते-रोते, सहन तो मुझे करना ही होगा। जब सहना ही है तो फिर रोते-रोते क्यों, हंसते-हंसते ही सहन करूँ।
5. पूर्व भव में मैंने ही भूलें की, उन भूलों की सजा ही, मुझे असाता के रूप में मिल रही है।
6. अपने किये हुए पापों का फल, मुझे भोगना ही होगा, इसके सिवाय और कोई उपाय नहीं है।
7. असाता वेदनीय के उदय में हाय-हाय करने से मेरा दुःख कम नहीं होगा, बल्कि वह और बढ़ जायेगा, फिर इसे समतापूर्वक सहन करने में ही समझदारी है।
8. संसार की विचित्रताओं को, सुख-दुःख की स्थितियों का चित्र अपनी आँखों से देखकर, अपने मन को जागृत करें। इस संसार भ्रमण से मुझे कब व कैसे छुटकारा मिलेगा। संसार असार है, जिधर देखों वहाँ दुःख-कश्ट-विपत्तियाँ व चिन्ताएँ दिखाई देती हैं। इस असार संसार से मुझे सार निकालना है।
9. संसार की कोई भी वस्तु, धन, संपत्ति, प्रेम, स्नेह, ममता, मुझे रोग, पीड़ा, वेदना व मृत्यु से नहीं बचा सकते। चाहे मेरा कितना ही बड़ा परिवार हो, चाहे बलवान शरीर हो, चाहे अखूट धन-संपदा हो, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु पर किसी का जोर नहीं चलता। समय आने पर सबको यहाँ से जाना ही पड़ता है। मैं सब बंधनों से मुक्त होकर इस संसार से विदा होना चाहती हूँ, परन्तु मेरी अपनी देहासक्ति के कारण मुझे बार-बार संसार रूपी जेल में फंसना पड़ता है।
जन्म-मरण का रोग है मिटाने को,
दे दो नाथ औशध सत्संग की (टेर)
अब तक खोटे वैद्य मिले, उल्टा रोग बढ़ाया है।
मिथ्या संगत छूटी ज्यों, रोग समझ में आया है। जन्म-मरण ….।। 1।।
रोग असाध्य नहीं दाता, निश्चय रोग पुराना है।
ज्ञानी गुरुवर वैद्य मिले, रोग मुक्त हो जाना है।। जन्म-मरण….।। 2।।
हे जीव! तू रोग जन्य दुःख से क्यों घबराता है। सचमूच यदि यह रोग तुझे अप्रिय लगता है और तू रोगों से मुक्त होना चाहता है तो अब समस्त बाह्य उपचारों का त्याग कर दें, क्योंकि यह रोग कर्माधीन है। इन रोगों को मिटाने की शक्ति बाह्य उपचारों में नहीं है। कदाच् कभी एकाध रोग कम हो जायेगा तो उससे क्या लाभ? हमेशा के लिए तो तू रोग मुक्त हो नहीं सकता। फिर से उसका या दूसरे रोग का उदय हो जायेगा। यदि तू समस्त रोगों की सदा के लिए चिकित्सा कराना चाहता है तो सनत्कुमार मुनि (चक्रवर्ती) की तरह जिनेन्द्र भगवान रूप अलौकिक वैद्य द्वारा कही गई औषधि का सेवन करके अपने समस्त रोगों को मिटा दे। इस औषधि का सेवन करने वाला अनन्त, अक्षय, असीम एवं अव्याबाध आनन्द को प्राप्त कर लेता है।
— श्रीमती रतन चोरडिया