जवाबदेह रहें दोनों ही, गण हो या तंत्र
प्रजातंत्र में समाज और जीवन के हर पहलू में गण और तंत्र दोनों ही एक-दूसरे के लिए हैं। गण को तंत्र के प्रति श्रद्धावान, वफादार और विश्वासु होना चाहिए। इसी प्रकार तंत्र को भी गण के प्रति जवाबदेह एवं संवेदशील होना चाहिए। दोनों के मध्य आपसी भरोसे और पारस्परिक सहयोग भावना जितनी अधिक प्रगाढ़ होगी उतना ही गणतंत्र का उल्लास प्रतिभासित होता रहेगा। विश्वास की यह डोर ही ऐसी है कि जिसके सहारे गण और तंत्र दोनों की उपादेयता, अस्तित्व और निरन्तरता टिकी रहती है। गण और तंत्र दोनों जब मिलकर एक-दूसरे की उन्नति के लिए पूरी पारदर्शिता और कल्याणकारी भावनाओं से काम करते हैं तभी गणतंत्र आशातीत सफलता हासिल कर सकता है। इसके लिए यह जरूरी है कि गण अपने कर्तव्यों, अधिकारों और मर्यादाओं को समझे, उनका पूरा-पूरा पालन करे।
तंत्र की भी जिम्मेदारी है कि वह गण के प्रति हर तरह से जवाबदेह रहे, गण की जरूरतों की यथासमय पूर्ति करता रहे, गण के अभावों को दूर करे, समस्याओं से मुक्ति दिलाए और यह प्रयास करे कि प्रत्येक गण सुनहरा जीवन पाने के प्रयासों में सफल रहे, आनंद और सुकून के साथ इस प्रकार जीवन निर्वाह का सुख पाए कि उसे हमेशा हर क्षण यह भान रहे कि तंत्र के कारण उसके जीवन को सम्बल प्राप्त हो रहा है। उसका तंत्र के प्रति विश्वास निरन्तर बढ़ता रहे, तंत्र को श्रद्धा से देखे, तभी माना जा सकता है कि तंत्र अपने लिए नहीं बल्कि देश के गण के लिए है। जो तंत्र गण द्वारा निर्मित है, गण के लिए बना है, उसका पहला और आरंभिक कर्तव्य यही है कि वह गण के लिए समर्पित होकर निष्ठा के साथ काम करे, गण की उन्नति के लिए सोचे और गण को गुणवान बनाए, इतनी अधिक नेतृत्व क्षमता और प्रतिभा का विकास करे कि गण गणेश की श्रेणी पा जाए, गणों में श्रेष्ठ हो जाए और तंत्र के लिए हर प्रकार से प्रेरक एवं सहयोगी सिद्ध हो सके।
असली गणतंत्र का उल्लास वही है जिसमें गण और तंत्र दोनों प्रसन्न रहें और एक-दूसरे के बारे में किसी को कोई शिकायत न हो। न गण को तंत्र से कोई परेशानी हो, न तंत्र को गण के बारे में नकारात्मक सोचने का कोई मौका मिले। गण और तंत्र के बीच के रिश्तों पर ही टिका है हमारा यह गणतंत्र। जहाँ कहीं यह पारस्परिक संतुलन गड़बड़ाने लगता है वहाँ गणतंत्र हिलता-डुलता हुआ नज़र आता है। जहाँ संतुलन बना रहता है वहाँ सब कुछ ठीक ठाक रहता है। गणतंत्र के नाम पर कितना ही बाहरी दिखावा हम कर लें, ऊपर से भागीदारी रचा लें, एक दिन खुश हो लें और गणतंत्र के नाम पर उल्लास मना लें। इसका कोई मतलब नहीं है यदि साल भर हमारे भीतर गणतंत्रोल्लास न रह पाए।
दुर्भाग्य से गण और तंत्र के बीच कहीं न कहीं कुछ दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। तंत्र अपने आपको अधिक से अधिक अधिकार सम्पन्न बनाए रखना चाहता है, हमेशा अपने अधिकारों की ही चिन्ता करता है और यह चाहता है कि तंत्र से जुड़े हुए तमाम अधीश्वरों का संप्रभुत्व हमेशा कायम रहे। तंत्र का अपना बुना हुआ ताना-बाना हमेशा बना रहे चाहे इसके लिए किसी भी प्रकार की कूटनीति और षड़यंत्रों का इस्तेमाल ही क्यों न करना पड़े। हर तांत्रिक चाहता है कि उसका तंत्र पर दखल मरते दम तक बना रहे, तंत्र उसके लिए ही सारे इंतजाम करता रहे और तंत्र से उसका अलगाव कभी न हो पाए। ये सारे निरन्तर अधिकार सम्पन्नता की दौड़ में भागे जा रहे हैं। और उधर गण विचित्र किन्तु सत्य और अजीबोगरीब हालातों में जीने को विवश है। आजादी के बाद तंत्र के प्रति उसकी जो अगाध आस्था और विश्वास जगा था वह हिलने लगकर पेण्डुलम की तरह हो गया है।
कभी गण अपने उद्धार के लिए तंत्र की ओर भागता है, आशाओं के विद्यमान होने तक तंत्र के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहता है, फिर निराश होकर अपने दूसरों गणों के खेमे में आ जाता है और राम भरोसे हो जाने का यथार्थ स्वीकार कर शांत होकर बैठ जाता है। तंत्र अपने मुखौटे लेकर गणों की ओर आता है फिर भी गणों पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता। कारण स्पष्ट है कि तंत्र की नीति और नीयत में कहीं न कहीं कोई खोट है जो मलीनताओं से साक्षात कराती है।
भारतवर्ष में अब गणतंत्र नए दौर में प्रवेश कर चुका है जहाँ गण का तंत्र के प्रति डोला हुआ विश्वास फिर पटरी पर आने लगा है और उधर तंत्र भी गण का ख्याल रखने के अपने विस्मृत दायित्व को फिर से याद कर चुका है। फिर भी अभी बहुत कुछ करना बाकी है। तंत्र किसी मशीन की तरह चलते चले जाने वाला है, उस पर संवेदनाओं का कोई फर्क भले न पड़े, गण इस मामले में अत्यन्त भावुक और संवेदनशील है उसका विश्वास जीतने के लिए तंत्र को अभी बहुत कुछ करना होगा। तंत्र को मशीनी भावों को छोड़कर संवेदनाओं में जीने की आदत डालनी होगी और तभी तंत्र के प्रति गण का विश्वास कायम हो सकता है।
गण संवेदनशील है और चाहता है कि उसके द्वारा सृजित तंत्र उसकी रचनात्मकता, जीवन निर्वाह और विकास की सारी परंपराओं को संबल प्रदान करे, उसके सुनहरे भविष्य के प्रति जवाबदेह रहे, पूरी पारदर्शिता के साथ अपने दायित्वों का निर्वहन करे। तंत्र को भी चाहिए कि वह ऐसे गण का नियंता होने का गौरव प्राप्त करे जो कि विकसित और निरन्तर उन्नतिशील है न कि वह गण-गण को अभावों-समस्याओं और विषमताओं में धकेलने वाला सिद्ध हो।
लगता है कि तंत्र की मशीन अब पुरानी बहुत पुरानी हो चली है, उसके कई सारे पुराने और घटिया कलपुर्जे घिस गए हैं, इन्हें बदलने की आवश्यकता है। जंग लगने के साथ ही कुछ पुर्जे और नट-बोल्ड अवधिपार हो चुके हैं, इतने घिस चुके हैं कि इन्हें बदला नहीं गया तो तंत्र मरियल सी आवाज में चूँ-चूँ बोलने लग जाने वाला है। और इन तमाम हालातों में बदलाव लाने का साहस कोई कर नहीं पा रहा है इसलिए तंत्र गण का अपेक्षित विश्वास अर्जित नहीं कर पा रहा है। इस विश्वास को लौटाने के लिए जरूरी है कि गणतंत्र का महत्व हम समझें और इसे केवल एक दिन और चन्द घण्टों के पर्व तक सीमित नहीं रखकर साल भर कुछ ऐसा करें कि गण और तंत्र मिलकर एक-दूसरे के लिए काम आएं, एक-दूसरे के प्रति विश्वास पैदा करें। असली गणतंत्र का उल्लास तभी साल भर बना रह सकता है।
सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
— डॉ. दीपक आचार्य