लघुकथा : सम्पन्नता
जब तक माँ थी:
“यह माँ भी ना! जो भी घर आता है, उसे कुछ न कुछ दे कर ही भेजती हैं। चाहे रिश्तेदार हो या मांगने वाला।” गुस्से में नेहा बोली।
“अब तो मैं भी थक चुका हूं। समझती ही नहीं कि पैसा लुटाने से घर में संपन्नता नहीं आती।” सुर में सुर मिलाते रवि बोला।
माँ को न समझना था और न समझीं। जीते जी खुश रहीं और दूसरों में खुशियां ही बिखेरीं।
माँ के जाने के बाद:
“यह रिश्तेदार भी न जाने क्यों कन्नी काटने लगे हैं। कोई घर आता ही नहीं।” उदास सुर में बहू बोली।
“सही कहती हो।” मां की फोटो को ताकता रवि बोला।
संपन्नता का तो पता नहीं, प्रसन्नता का राज शायद दोनों के सामने था।
अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’