चाय
चाय की चुस्की हँसीन है प्याला
शाम रंगीन नजारा बेहद निराला
मन को तरोताजा तुरंत है करता
शाम सबेरे सेवा में ये रहता
आसाम दार्जलिंग से टुट कर आई
घर घर में ये अपनी पहुँच बनाई
मजदूरों ने पहाड़ी से गर्दन तोड़ा
शहर के मशीन ने बेरहमी से मोड़ा
टी बोर्ड कलकत्ता में पेटी में लाई
लेबल लगाकर बाजार में जमाई
तौल कर बिक रही है चाय परिवार
घाटी से छुटा इनका घर द्वार
ग्राहक पैसा चुका कर किचन में लाया
गरम पानी मे बेशरमी से इन्हे खौलाया
दूध शक्कर दे इन्हें स्वादिष्ट बनवाया
मेहमानों में कप में सर्व चाय कराया
सब मिल कर किया वंश का संहार
कैसा निर्दयी बनी जग का सहचार
दर्द इनके मन की किसी ने ना जाना
मतलब का है जग वाले का पैमाना
— उदय किशोर साह