साहित्य की सड़ांध को उजागर करनेवाला उपन्यास
हिंदी साहित्य का आसमान कुटिल साहित्यकारों, पक्षपाती आलोचकों और मूर्ख संपादकों से गंधित है I जिन साहित्यकारों से सहृदय होने की अपेक्षा की जाती है वे अपनी कुटिल चाल से राजनीतिज्ञों को भी मात देने की क्षमता रखते हैं I हिंदी में एक से बढ़कर एक धनशोधक, यौन शोषक और पाखंडी साहित्यकार विराजमान हैं जो ‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ की उक्ति को चरितार्थ करते हैं I हिंदी के आलोचकों से ईमानदार आलोचना की अपेक्षा करना बालू से तेल निकालने के समान है I हिंदी में अनेक मठ हैं, अनेक खेमा है, विविधवर्णी तंबू है और एक-दूसरे की पीठ खुजाने की समृद्ध परंपरा है I यदि कोई लेखक किसी मठ का सदस्य नहीं है या वह किसी पीठाधीश्वर की लंगोटी नहीं साफ़ करता है तो हिंदी साहित्य में उसकी कोई चर्चा नहीं होती I हिंदी में पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन-प्रकाशन की भी अपनी एक प्रपंची गणित है I हिंदीवाले ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का सर्वाधिक उपयोग करते हैं, लेकिन सबसे अधिक संकीर्ण मानसिकता और केकड़ा प्रवृत्ति के लोग हिंदी में ही पाए जाते हैं I वरिष्ठ कथाकार श्री जयराम सिंह गौर की औपन्यासिक कृति ‘अपने अपने रास्ते’ हिंदी साहित्य के इसी कपटपूर्ण चाल-चरित्र की भावभूमि पर आधारित है I इस उपन्यास में हिंदी के प्रदूषित, कलुषित और बाजारवादी साहित्यिक वातावरण का जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया गया है I हिंदी के साहित्यकारों, लेखकों, कवियों और आलोचकों के अलग-अलग गिरोह हैं जो किसी साहित्यकार को उठाने और किसी को गिराने के षड्यंत्र में लगे रहते हैं I उपन्यासकार को बार-बार नूरा कुँजड़ा की याद आती है जिसके चरित्र के माध्यम से इस सत्य को स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि साहित्यकारों से अधिक ईमानदार और सहृदय नूरा है जो बाज़ार में रहकर भी बाजारवादी कुप्रवृत्तियों से दूर है I जिन साहित्यकारों से ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है वे साहित्यकार सभी प्रकार की बदमाशियों में लिप्त रहते हैं I ‘अपने अपने रास्ते’ उपन्यास जयराम सिंह गौर की एक प्रसिद्ध कहानी ‘मंडी’ का ही विस्तार है I इस उपन्यास के आरंभ में ही संकेत दे दिया गया है कि इसका कथ्य हिंदी साहित्य का बाजारीकरण है I सचमुच हिंदी में अनेक मंडियाँ स्थापित हो गई हैं जहाँ बैठकर साहित्य के दलाल निरंतर मोलभाव करते रहते हैं-“शहर भौगोलिकता के आधार पर बँटा होता है I बँटे हुए हर भाग की बस्तियों में रहनेवालों के लिए जैसे सब्जी मंडियाँ लगती हैं उसी तरह शहर के हर भाग के अपने-अपने साहित्यिक अड्डे भी होते हैं जिन्हें वरिष्ठ (गुरु) लोग संचालित करते हैं I” साकेत और अनिकेत इस उपन्यास के प्रमुख पात्र हैं जो कहने के लिए तो साहित्यकार हैं, परंतु हमेशा कुटिलता, धूर्तता और बदमाशियों की नई इबारत लिखते रहते हैं I वे दोनों साथ-साथ रहते हुए भी एक-दूसरे की टांग खींचने और अपमानित करने में कोई कोताही नहीं करते हैं I अनिकेत नए लेखकों-कवियों से पुस्तक प्रकाशित करने के लिए पैसे लेकर उदरस्थ कर जाता है, लेकिन पुस्तकें प्रकाशित नहीं करता I वह नए-नए लेखकों को फँसाता रहता है I हिंदी के ये धुरंधर पैसे डकार जाने, चुगली करने, किसी सेठ की झूठी प्रशंसा कर ठग लेने की कला में बहुत पारंगत हैं I
‘अपने अपने रास्ते’ में नई कविता की असंप्रेषणीयता पर प्रहार किया गया है I मंच से कविता पाठ होता है और लोग बिना समझे ही वाह-वाह करते रहते हैं I कवि सम्मेलनों में सतही कविताओं और तुकबंदियों पर भी लोग वाह-वाह करते हैं I कवि सम्मेलनों के पाखंड पर उपन्यासकार ने सटीक टिप्पणी की है-“वाह-वाह करना तो मंच का एटीकेट होता है I जो भी मंच पर हो उसे वाह-वाह करना ही चाहिए अन्यथा लोग उसे मूढ़ समझेंगे I” साहित्य की मंडी में बड़े-बड़े साहित्यकार मुखौटे लगाकर घूमते हैं I कविता का सिर-पैर समझ में न आए फिर भी लोग वाह-वाह करते हैं I आधुनिक कवियों का मानना है कि कविता यदि सबको समझ में आ जाए तो उन्हें कोई बड़ा कवि नहीं मानेगा I उपन्यासकार ने साहित्यकारों के चरित्र की गिरावट को प्रदर्शित करने के लिए उपन्यास के बीच-बीच में नूरा के व्यक्तित्व की अच्छाई को रेखांकित किया है-“ऐसा है नूरा, भीतर-बाहर एकदम साफ़, और यह साहित्यिक……….I” उपन्यासकार ने साहित्यकारों के चारित्रिक पतन को दिखाने के लिए अपने वाक्य को अधूरा छोड़ दिया है I तात्पर्य यह कि इन साहित्यकारों के पतन की कोई सीमा नहीं है I उपन्यास में साहित्यकारों के पाखंड और चरित्रहीनता का पोस्टमार्टम किया गया है I उपन्यासकार की टिप्पणी है-“इन साहित्यिकों की एक बात गले नहीं उतरती, सामने तो पैर छुएंगे, दादा-दादा करेंगे, पीठ पीछे खूब गालियाँ देंगे I हो सकता है, यह भी कोई साहित्यिक आचरण हो I” अनिकेत और साकेत मन ही मन एक-दूसरे से नफरत करते हैं, लेकिन मिलने पर ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे वे गहरे मित्र हों I अनिकेत नए कवियों को फँसाकर उनका दोहन करता है, लेकिन कुछ समय के बाद नए कवि अनिकेत का पिंजरा तोडकर भाग निकलते हैं I इस उपन्यास में एक से बढ़कर एक लंपट और धनलोलुप साहित्यकारों का यथार्थ चित्रण मिलता है जो कहने को तो लेखक और कवि हैं, लेकिन इनमें इंसानियत का कोई चिह्न नहीं है I इस उपन्यास का एक पात्र सुमेर परपीड़क व्यक्ति है जिसे समझना कठिन है I उपन्यासकार ने सुमेर के बारे में लिखा है-“भगवान को समझना आसान है, पर सुमेर को समझना अत्यंत कठिन है I जाने कितने लोग इनकी मदद से कितने कष्ट झेल चुके हैं, फिर भी इनके पीछे घूमनेवालों की संख्या में कोई कमी नहीं आती है I” समाज में श्रेष्ठ माने जानेवाले साहित्यकार कितने घृणित होते हैं इसका कच्चा चिट्ठा इस उपन्यास में प्रस्तुत किया गया है I हिंदी में पत्रिका का संपादन और उनमें रचनाएँ प्रकाशित करने की भी अपनी एक गणित होती है I संपादन-प्रकाशन के मायाजाल पर उपन्यासकार का कथन द्रष्टव्य है-“छपने की अपनी गणित अलग होती है I या तो आप किसी पत्र/पत्रिका के सम्पादक हों, कोई बड़े पूंजीपति हों जो पत्रिकाओं को बड़े-बड़े विज्ञापन से नवाज सकें, बड़े समीक्षक हों या उनके चमचे I” उपन्यासकार का यह निष्कर्ष उचित ही है कि रचना अपनी गुणवत्ता के कारण नहीं, बल्कि लेखक के नाम के कारण छपती है I उपन्यास में हिंदी के समीक्षकों की पोल-पट्टी खोली गई है I इन समीक्षकों को दादा की संज्ञा दी गई है I सचमुच ये साहित्य के दादा ही हैं जो सुपारी लेकर किसी मेधाहीन कवि को महाकवि घोषित कर देते हैं और किसी प्रतिभाशाली कवि को घटिया साबित कर देते हैं I ऐसे समीक्षक साहित्य रूपी मंडी के व्यापारी हैं जो अपने निजी स्वार्थ के लिए कचरा को भी महाकाव्य घोषित कर देते हैं I हिंदी में पुस्तकों की गुणवत्ता का कोई महत्त्व नहीं है I विचारधारा के आधार पर लेखकों का मूल्यांकन किया जाता है I हिंदी में अपनी-अपनी विचारधारा के कवियों-लेखकों को महान और दूसरी विचारधारा के कवियों-लेखकों को घटिया सिद्ध करने के लिए नए-नए तर्क गढ़े जाते हैं एवं नए-नए निकषों का अनुसंधान किया जाता है I उपन्यासकार ने समकालीन साहित्यिक वातावरण पर निर्मम चोट की है-“समीक्षकों की दादागीरी मेरी समझ के बाहर है I अच्छी से अच्छी रचना, जो उनकी विचारधारा के विरुद्ध है, को कंडम करने में उन्हें कोई देर नहीं लगती I आजकल तुलसी, प्रेमचंद तक को खारिज किया जा रहा है I” इन साहित्यकारों के चारित्रिक पतन की कोई सीमा नहीं है I नूरा अपढ़ और गरीब होते हुए भी इन साहित्यकारों से अधिक चरित्रवान है I वह ईमानदार और परिश्रमी है, लेकिन साकेत और अनिकेत जैसे साहित्यकार दूसरे के धन पर पलनेवाले परजीवी हैं I इन साहित्यकारों के चारित्रिक पतन को देखकर उपन्यासकार को अक्सर नूरा याद आता है-“आज फिर मुझे नूरा बड़ा ईमानदार दिखा I कम से कम किसी का काम तो नहीं बिगाड़ता I और ये साहित्यिक दूसरों का तो छोडिए अपने ख़ास दोस्तों को भी नहीं छोड़ते I अनिकेत और साकेत को देखें, साथ रहते-रहते बुढ़ा गए, यह इतने पढ़े-लिखे भी हैं, पर ये लोग बात-व्यवहार में नूरा के पैर के धोवन भी नहीं हैं I” यह एक स्थापित सत्य है कि उच्च शिक्षा से व्यक्ति के मूल चरित्र में ख़ास बदलाव नहीं होता है I
विश्वविद्यालयों में पी-एच.डी. की मंडी सजी है I शोध के नाम पर यहाँ प्रति वर्ष कई टन कचरों का उत्पादन किया जाता है, लेकिन उनमें कोई गुणवत्ता नहीं होती I शोध प्रबंध लिखने, पी-एच.डी. करने-कराने के नाम पर छात्र-छात्राओं का शोषण सर्वविदित है I छात्राओं का तो आर्थिक के साथ-साथ दैहिक शोषण भी किया जाता है I उपन्यास में विश्वविद्यालयों के शोध छात्रों के शोषण चक्र को बेपर्दा किया गया है I यह उपन्यास प्रोफेसरों की काली करतूतों का श्वेत पत्र है I इस उपन्यास में छात्राओं के दैहिक शोषण का जीवंत चित्रण किया गया है-“गाइड लोग तब तक नहीं छोड़ते जब तक पी-एच.डी. एवार्ड न हो जाए I अरे कभी-कभी यह लोग लड़की को वाइवा लेनेवाले प्रोफ़ेसर को भी परोस देते हैं I” समाज के सफेदपोश लोगों के चरित्र की यह गिरावट घृणास्पद है I इस उपन्यास में साहित्यकारों की कथनी और करनी के अंतर को व्याख्यायित किया गया है I लंपट और धनशोधक साहित्यकारों ने साहित्य के वातावरण को दूषित कर दिया है I साहित्यकारों का अहंकार हमेशा सातवें आसमान पर रहता है I साहित्यकार स्वयं को विशिष्ट मानते है, लेकिन वे तो इंसान कहलाने के योग्य भी नहीं है I उपन्यास में साहित्यकारों के अहंकार और विशिष्टता-बोध पर एक गंभीर टिप्पणी की गई है-“वरिष्ठ साहित्यकारों का अहंकार तो गगनचुंबी है I किसी मौके पर उनको विश करो तो उसका जवाब तक देना उचित नहीं समझते हैं I” इस उपन्यास में हिंदी प्रकाशन जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार और बदमाशियों को भी बेनकाब किया गया है I प्रकाशन से जुड़े लोग और वरिष्ठ लेखक नए कवियों से संग्रह प्रकाशित करने के नाम पर रुपए तो ऐंठ लेते हैं, लेकिन संग्रह को मूर्त रूप नहीं देते I काव्य जगत में एक-दूसरे को आमंत्रित करने की स्थापित परंपरा है गोया कवि सम्मेलन न हो, बनिए की दुकान हो गई I काव्य सम्मेलनों में सब कुछ प्रायोजित होता है I इस उपन्यास में कहानी कला पर भी विमर्श किया गया है I कहानी कला के तत्वों की चर्चा करते हुए इस बात पर बल दिया गया है कि कहानी की भाषा सरल होनी चाहिए I यह उपन्यास साहित्य को मंडी में तब्दील होने की महागाथा प्रस्तुत करता है जहाँ किसी व्यापारी की भांति मोल-भाव किया जाता है एवं साहित्य की खरीद-बिक्री होती है I वणिक बुद्धि के इन चतुर व्यापारियों ने साहित्य को एक वस्तु बना दिया है I उपन्यास में साहित्य के बाजारीकरण और साहित्यकारों के व्यापारीकरण का बहुत जीवंत चित्रण किया गया है-“बताना आवश्यक है कि गोपाल भी दक्षिण की एक मंडी के स्वयंभू थोक व्यापारी हैं I” भारत में नेता सर्वोपरि होते हैं I जिस सभा में नेता उपस्थित होते हैं वहाँ अन्य किसी को कोई नहीं पूछता है I चाहे कोई व्यक्ति साहित्य के उच्च शिखर पर विराजमान हो, लेकिन एक छुटभैये नेता के सामने बड़े से बड़े साहित्यकार का भी कोई महत्व नहीं है I यह भारत का और विशेषकर हिंदी भाषी क्षेत्र का यथार्थ है I साहित्यकारों की दीनता की एक बानगी द्रष्टव्य है-“नेताओं के माल्यार्पण के कारण साहित्यिकों को मालाएँ कम पड़ गईं तो पहनी हुई मालाओं से ही काम चलाया गया I” साहित्यकारों ने अपने आचरण से अपना महत्व कम कर लिया है और वे नेताओं की पहनी हुई माला पहनने के ही पात्र हैं I साहित्यकारों को पहनी हुई माला पहनाना समाज में साहित्यकारों की हीन दशा को दर्शाता है I माला पहनना-पहनाना प्रतीकात्मक है I साहित्य में कवि प्रभास जैसे लंपट लोगों की भरमार है जो कमसिन लड़कियों पर डोरे डालते रहते हैं I साहित्य की मंडी में ऐसे निर्लज्ज चरित्र ढेरों मिल जाएँगे I दूसरी ओर रीमा जैसी लड़कियों की भी कमी नहीं है जो जीवन में आगे बढ़ने के लिए अपनी देह को ही सीढ़ी बना लेती हैं I उपन्यास में प्रलेस के पाखंड पर भी प्रहार किया गया है I ऐसा अक्सर देखा जाता है कि मन से धर्मभीरु लोग भी सार्वजनिक रूप से नास्तिकता का प्रदर्शन करते हैं I प्रलेस की दोगली मानसिकता पर उपन्यासकार ने निर्मम प्रहार किया है-“जैसा कि प्रलेस की मीटिंगों में होता है बिना दीप-प्रज्वलन और सरस्वती वंदना के कार्यक्रम की शुरुआत हुई I लगता है कि यह भी इनका व्यवस्था विरोध है I मैं पचासों प्रलेसियों को जानता हूँ जो दीवाली पर लक्ष्मी पूजन करते हैं, उनके यहाँ सुंदर कांड का पाठ होता है, पर मंच पर यह नाटक करते हैं I मुझे बस ऐसी दोगली मानसिकता वालों से चिढ़ है I” उपन्यास के अंत में साकेत जैसे धनलोलुप साहित्यकार का भी ह्रदय परिवर्तन हो जाता है, परंतु यह गांधीवादी ह्रदय परिवर्तन नहीं है I यह संसार के निरर्थकता-बोध से उपजा वैराग्य है I जब साकेत की पत्नी का निधन हो जाता है और उसका पुत्र विजातीय विवाह कर लेता है तो उसे अपना जीवन अर्थहीन लगने लगता है I घोर प्रगतिवादी साकेत भी राम भजन करने लगता है I उपन्यास में बदलते गाँवों और गाँववालों का भी यथार्थ चित्रण किया गया है I अब गाँव के लोग भी प्रपंच करने में माहिर हो चुके हैं I श्री जयराम सिंह गौर की औपन्यासिक कृति ‘अपने अपने रास्ते’ हिंदी साहित्य की उन तंग गलियों से गुजरती है जहाँ सड़ांध, बदबू और हर प्रकार की बेहयाई है, जहाँ साहित्य का व्यापार होता है, जहाँ एक साहित्यकार दूसरे की पीठ में छूरा घोंपते हैं और जहाँ रिश्ते नीलाम होते हैं I यहाँ मित्रता का कोई मोल नहीं है और साहित्यकारों में न्यूनतम नैतिकता भी नहीं है I उपन्यास की कथावस्तु यथार्थ जीवन से ली गई है और कल्पना के रंग-रोगन से उसे रोचक बना दिया गया है I उपन्यासकार ने हिंदी साहित्य की गन्दगी दिखाने के लिए रोचक कथा का तानाबाना बुना है I संक्षेप में कहा जाए तो इस उपन्यास में हिंदी साहित्य की नंगी सच्चाई को शब्दों की कमीज पहना दी गई है I इस उपन्यास में अद्भुत पठनीयता है एवं यह पाठकों को अंत तक बांधे रखने में सफल है I उपन्यास की भाषा सहज और बोधगम्य है I
पुस्तक-अपने अपने रास्ते
लेखक-जयराम सिंह गौर
प्रकाशक-इंडिया नेटबुक्स, नोएडा
वर्ष-2020
पृष्ठ-136
मूल्य-350/-