सच्चा सौदा
शाम के छः बजे रमनलाल जी के घर के सामने श्वानों की लाइन लगी है. अच्छे विद्यार्थियों की भांति पूरी तरह से अनुशासित खड़े हैं सभी श्वान. अपनी बारी आने पर रमनलाल श्वान को चोला पहनाता है. वह चला जाता है और शांति से अगला श्वान चोला पहनने के लिए प्रस्तुत होता है. रमनलाल अपनी दुकान बढ़ाने वाला है, इसलिए यह क्रम चल रहा है.
सैर करते हुए ऐसा अद्भुत मंजर देखकर श्यामलाल जी अचंभित थे. सुबह सैर करते हुए फिर वैसा ही मंजर! इस बार चोला पहनाने का नहीं, चोला उतारने का मंजर था.
श्यामलाल जी का भी रोज का नियम था और रमनलाल जी का भी.
आखिर एक दिन श्यामलाल जी ने पूछ ही तो लिया! “रमनलाल जी, सुबह-शाम आप यह कैसी लीला रचाते हैं!”
“कुछ नहीं भैय्या! जहां सारा दिन ग्राहकों के कपड़े सिलता हूं, कुछ इन बेजुबानों के लिए भी हो जाता है.” रमनलाल जी दुकान बढ़ाते हुए बोले.
श्यामलाल जी ने नोट कमाते तो बहुतों को देखा था, पर बाबा नानक देव जी के बाद सच्चा सौदा अब देखने को मिला था.