दोहे “कच्चेघर-खपरैल”
मास फरवरी आ गया, बढ़ा सूर्य का ताप।
उपवन में कलियाँ-सुमन, करते क्रिया-कलाप।।
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पिघल रहे हैं ग्लेशियर, दरक रहे हैं शैल।
नजर न आते नगर में, कच्चेघर-खपरैल।।
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दिन ज्यों-ज्यों बढ़ने लगा, चढ़ने लगा खुमार।
मौसम सबको बाँटता, वासन्ती उपहार।।
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चहक उठी है वाटिका, महक उठा है रूप।
भँवरे गुंजन कर रहे, खिली-खिली है धूप।।
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जैसे-जैसे आ रहा, प्रेमदिवस नज़दीक।
वैसे-वैसे हो रहा, मौसम भी रमणीक।।
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जोड़ों पर चढ़ने लगा, प्रेमदिवस का रंग।
रीत पुरानी है वही, किन्तु नये हैं ढंग।।
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कर्कश सुर में गा रहे, कागा भौंडे गीत।।
नये साज के शोर में, बदल गया संगीत।।
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बरस रहा शृंगार है, सरस रहा मधुमास।
जड़-चेतन को हो रहा, मस्ती का आभास।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)