कबीर और तुलसी दोनों हिंदुत्व के पोषक थे
संत कबीर के जन्म के बारे में प्रचलित कहानियों का निचोड़ यह है कि ये लहरतारा सरोवर के किनारे पाए गए। एक जुलाहे दम्पत्ति ने इनका लालन- पालन किया और ये भी जुलाहे का काम करने लगे। उस समय काशी जनपद में जुलाहे हिंदू नहीं थे पर अन्य मुसलमानों की तरह कट्टर मुसलमान भी नहीं थे। अर्थात् रोजी-रोटी के जुगाड़ में ये सूत कातने वाले सामान्य सर्वहारा थे। शायद इसीलिए कबीर कभी भी इस्लाम या मुसलमानों से प्रभावित नहीं दिखे। जबकि साधारण मुसलमान अवश्य कबीर से प्रभावित थे। कुछ बड़े होने पर कबीर उस समय के वैष्णव गुरु रामानन्द को गुरु बनाने पर अटल रहे। यदि कबीर का परिवार कट्टर मजहबी होता तो पालित बेटे द्वारा यह सोचना भी सम्भव नहीं था। कबीर ने ब्राह्मणों के घोर विरोध और गुरु रामानन्द द्वारा बार-बार ठुकराए जाने के बाद भी उनको ही गुरु माना। अन्ततः रामानन्द ने कबीर को अपने शिष्यों में प्रथम स्थान दिया।
कबीर जीवन पर्यंत “राम” को जपते रहे और “राम” से परिचय कराने हेतु गुरु महिमा गाते रहे। कबीर अपने पूरे जीवन काल में कभी भी इस्लामिक होना नहीं स्वीकार किए और न ही इस संबंध में उनकी कोई रचना उपलब्ध है। हाँ, उन्होंने कई बार स्वयं को “जुलाहा” बताया। अर्थात् कबीर के लिए जुलाहे उस समय के औसत मुसलमानों से भिन्न थे।
कबीर पर विधर्मियों द्वारा राजद्रोह भी लगाया गया और यातनाएँ भी दी गईं। राजैनैतिक और सामाजिक परिवेश विषैला था। शासक अस्थिर थे। शासन में उथल-पुथल था। मुसलमानों के हाथ में सत्ता और तलवारें थीं। हिंदुओं के मध्य निर्गुण-सगुण और शैव-शाक्त-वैष्णव रूपी भेद थे। हिंदू इन भेदों में न केवल बँटे थे बल्कि त्रिशूल-तलवार-धनुष के साथ भी आपस में भिड़ जाते थे।
संत कबीर ने अनुभव किया कि बाहरी विधर्मियों से हिंदुत्व को बचाए रखने के लिए हिंदुओं को एक होना पड़ेगा। लेकिन हिंदू तो कई तरह से बँटे हुए थे। गौरतलब बात यह थी कि हिंदुओं के सारे पंथ या शाखाएँ मानवतावाद की पोषक थी। सत्य एवं सदाचार की पक्षधर थीं। पुरुषार्थ को मानने वाली थीं। परमपिता को सभी मानते थे। परहित पर सबका जोर था। फिर भेद किस बात का था? भेद था तो केवल “मूर्ति” का। “मूर्ति” ने हिंदुओं को बाँट रखा था। तब कबीर ने निश्चय किया कि “मूर्ति” पूजा का विरोध करके समस्त पंथों से मूर्ति को हटाया जाए और विघटित हिंदुओं को एक सूत्र में बाँधा जाए।
“पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पुजूँ पहार।
इससे तो चाकी भली, पीस खाय संसार।।”
कबीर ने लटकती तलवारों के बीच भी इस्लाम के मूल तत्व रोज़ा (में गौहत्या) अजान (में बाग देने) और हज़ (में दूरस्थ काँबा जाने) का उपहास उड़ाया। लोगों को इस्लाम से प्रभावित होने से हतोत्साहित किया। वही कबीर सदैव हिंदुत्व और श्रीराम के प्रति पूरी निष्ठा से आजीवन समर्पित दिखे।
कबीर का हिंदू-एकता का कार्य कमोबेश अप्रत्यक्ष चलता रहा। मुगलकाल के नरभक्षी शासन व्यवस्था में इससे स्पष्ट कोई बोल भी नहीं सकता था। कबीर ने एकता का बीजारोपण किया था। कालान्तर में अकबर का समय आने पर मध्य भारत में स्थितियाँ काफी सहज थीं। गोस्वामी तुलसीदास को सहज और सुगम परिवेश मिला। कबीर द्वारा बोये गए बीज को तुलसी ने “रामचरित मानस” रचकर विशाल वृक्ष बना दिया। बालकाण्ड में तुलसी जी ने सगुण और निर्गुण के बीच की खाईं पाटकर एकीकरण किया।
“सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा।
गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।”
इसके आगे तुलसीदास जी ने स्पष्ट कहा कि भक्तों के लिए वह निर्गुण ही सगुण है।
“अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।”
बालकाण्ड में ही तुलसीदास जी सुकुमारी सीता द्वारा गौरा पूजन कराते हुए शाक्त और वैष्णव को एक करते हैं।
“सेवत तोहि सुलभ फल चारी।
बरदायनी पुरारि पियारी।।
देवि पूजि पद कमल तुम्हारे।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।।”
लंकाकाण्ड में तुलसीदास जी वैष्णव शैव का एकीकरण करते हैं।
“सिव द्रोही मम भगत कहावा।
सो नर सपनेहुँ मोहि न भावा।।
संकर विमुख भगति चह मोरी।
सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।”
इसके अतिरिक्त भी तुलसीदास ने रामचरित मानस में बिखरे हिंदुओं का बहुविधि से समन्वय किया है। कबीर के रहस्य को जगजाहिर किया है। अद्वैत और द्वैत का एकाकार किया है। लोक और शास्त्र को जोड़ा है। गृहस्थ और वैराग को मिलाया है। ज्ञानी और भक्त को एकात्म किया है।
अब पुनः विचारणीय है कि इस्लामीकरण और बौद्धिक नक्सलवाद क्यों नहीं हिंदुत्व के पोषक तुलसीदास कृत रामचरित मानस का विरोध करेगा! ध्यान रहे कि ये लोग ही श्रीराम को नकारकर पाँच सौ वर्षों तक सबूत माँगते रहे हैं। अब जबकि राम साबित होकर पुनः प्रतिष्ठित हो गए हैं तो अब रामचरित मानस पर आक्रमण शुरू हुआ है।
आप सभी से करबद्ध निवेदन है कि हिंदुस्तान और हिंदुत्व की सुरक्षा हेतु एक जुटता का परिचय दें। संत कबीर के प्रयोजन को समझें और तुलसीदास की शिक्षाओं का पालन करें। हमारी एक जुटता ही उनके लिए प्रत्युत्तर है। जय श्रीराम। एक दोहा द्रष्टव्य है-
मत बाँटो मूरख जनों, तुलसी और कबीर।
राम नाम के आसरे, जपते हिंदू पीर।।
— डॉ अवधेश कुमार अवध