गीत/नवगीत

आस्था

आस्था बस पुस्तकों पर ही टिकी होती नहीं है।
यह विवादों में उलझकर अस्मिता खोती नहीं है।।
बीज जो विश्वास के बोए गए अंतर्मनों में।
आस्था बनकर हुए वे पल्लवित हृदयांगनों में।
संस्कारों में ढली जब आस्था, विस्तार पाकर,
व्यक्ति को वह शक्ति भी देने लगी दुर्बल क्षणों में।
होश भी खो दे अगर इंसान संकट की घड़ी में,
चेतना में जागती है आस्था, सोती नहीं है।।
व्यक्तिवादी सोच हर पल बस स्वयं को देखती है।
दृष्टि की संकीर्णता केवल अहम् को देखती है।
हर किसी को हैं सुगम अवसर गहन अनुभूतियों के,
आस्था तो पत्थरों में भी परम को देखती है।
मानसिक विक्षिप्त लोगों को भला कैसे बताएँ,
आस्था निज पीठ पर भ्रम की शिला ढोती नहीं है।।
ज्ञानियों से भी बड़ा खुद को समझते हो अगर तुम।
बाप को भी बाप कहने से हिचकते हो अगर तुम।
अंत में कुछ भी न आएगा तुम्हारे हाथ ढोंगी,
छल-कपट, दुर्भावना का खेल रचते हो अगर तुम।
कर रहे हो आस्था की जिस धरोहर का निरादर,
शिव प्रमाणित ग्रंथ है, सामान्य-सी पोथी नहीं है।।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’

बृज राज किशोर "राहगीर"

वरिष्ठ कवि, पचास वर्षों का लेखन, दो काव्य संग्रह प्रकाशित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनायें प्रकाशित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ सेवानिवृत्त एलआईसी अधिकारी पता: FT-10, ईशा अपार्टमेंट, रूड़की रोड, मेरठ-250001 (उ.प्र.)