स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का दुरुपयोग
भारत एक लोकतांत्रिक देश है यहाँ प्रत्येक भारतीय नागरिक को सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त है ।
परन्तु देखने मेरे आ रहा है कि कुछ राजनेता जब सरकार की आलोचना करते करते थक जाते हैँ या उन्हें आलोचना करने का कोई उचित विषय नहीँ मिलता तब उनकी दृष्टि भारत में सृजित साहित्य की ओर जाती है ।
साहित्य समाज का दर्पण है
भाषा कोई भी हो लेकिन उस भाषा में सृजित साहित्य समाज का या तो साक्षात्कार कराता है या फिर उसकी भाषा अलंकारिक हो जाती है लेकिन उसका उद्देश्य कल्याणकारी ही होता है । समग्र रूपेण हम कहना चाहेंगे कि साहित्य तत्कालीन समाज का प्रत्यक्ष दर्शन कराता है । साहित्य सृजन स्वतंत्र होता है जब कि इतिहास लेखन सत्ता से प्रेरित एवं उसके सापेक्ष होता है।
साहित्य की आलोचना
किसी राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर ग्रंथों के रूप में ही संरक्षित होती है और उनके माध्यम से ही प्राचीन सांस्कृतिक विरासत का हमें ज्ञान होता है। प्राचीन ग्रंथ हमें प्राचीन संस्कृति का ज्ञान कराते है।
ग्रंथ हमारी राष्ट्रीय सांस्कृतिक धरोहर हैं उनकी आलोचना करना राष्ट्र की आलोचना के समान हैँ ।
इधर देखने में आ रहा है कि कुछ दिग्भ्रमित राजनेता वोट बैंक को दृष्टिकोण में रखकर विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस की कटु आलोचना करने से नहीं चूके । रामचरितमानस हिन्दी हिन्दीसाहित्य का न केवल महाकाव्य बल्कि लोकग्रन्थ भी है उसकी आलोचना करना लोक / राष्ट्र का अनादर भी है । इन राज नेताओं यहाँ तक कहना कि कुछ अंश हटा दिया जाय तब वह ग्रन्थ उसी प्रकार अधूरा हो जायेगा जैसे किसी के चेहरे से उसकी नाक काट कर अलग कर दी जाय और फिर उसके चेहरे को देखा जाय ।
बौद्ध धर्मावलंबी स्वामीप्रसाद मौर्य और चन्द्र शेखर यादव की रामचरितमानस पर छुद्र टिप्पणी खेद जनक है ।
मानस की महत्ता
रामचरितमानस की महत्ता किसी के आलोचना करने से भी कम नहीं हो सकती । रामचरितमानस न केवल महाकाव्य है बल्कि एक ऐसा लोकग्रंथ है जो हर व्यक्ति के दिल में समाया हुआ है।
मानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसकी प्रत्येक पंक्ति समाज को दिशा देती है । इसकी महत्ता इसी बात से जानी जा सकती है कि मुगल काल और ब्रिटिश काल मे जब आम जनता त्रस्त और व्याकुल थी , तब मानस से ही उसे समाज धर्म का एवं कर्तव्य का बोध होता था ।
हाँ यदि किसी में सामर्थ्य है तो रामचरितमानस से उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य जनता को पढ़ने के लिए उपलब्ध कर सकता है ।
सामाजिक ताना बाना छिन्न भिन्न करने का कुत्सित प्रयास
इधर देखने में आ रहा है कि कुछ राजनेता समाज में विद्वेष फैलाकर जातीय संघर्ष कराना चाह रहे हैँ, यह लोकतंत्र का सबसे घृणित रूप है । आजादी के 76 वर्ष बाद देश में जातिवादी विषमता की जो खाई धीरे धीरे समापन की ओर जा रही थी , उसे सत्ता के लोभी ,सामाजिक समरसता के विध्वंसक राजनेता समाज में जातिवाद की जड़ों को पुनः सिंचित करने लगते हैं। इन्हे समाज सेवक न कह कर समाज भंजक कहना चाहिए। ऐसे सत्ता लोभी, समाज भंजक राजनेताओं को जब कुछ नहीं मिला तो अपनी भारतीय सांस्कृतिक धरोहर पर ही हमला करना शुरू कर दिया ।
विश्व में सभी धर्मों के लोग अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए सदैव प्रयास रत रहते हैं लेकिन अफसोस है भारतीय लोकतन्त्र में कुत्सित मानसिकता एवं सत्ता लोभ के कारण कुछ सिरफिरे राजनेता भारतीय संस्कृति पर हमला करने से नहीं चूक रहे हैं।
अभिमत
1- राज नेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर को संजोकर रखने वाले ग्रंथों की आलोचना करने से अपने को दूर रखें।
2- रामचरितमानस जैसे ग्रंथों की आलोचना से जनता में जातीय संघर्ष की भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
— अशर्फी लाल मिश्र
उत्तम लेख।