गीतिका
बिना कर्म मिलता न तुझे कण।
करता है क्यों वृथा मनुज रण??
समय नष्ट करता है यों ही,
क्यों न बनाता उपयोगी क्षण?
आस्तीन का साँप बना नर,
फैलाता अपना चौड़ा फण।
देशप्रेम धर जनहित कर ले,
कर अमृत – वाणी का प्रसवण।
अपना पेट श्वान भी भरते,
पर – उपकारी बन कर अर्पण।
रचना कर परहित में कृतियाँ,
वृथा नहीं धरती पर लघु तृण।
चुम्बक ‘शुभम्’ बने यदि मानव,
सदा मिले पावन आकर्षण।
— डॉ.भगवत स्वरूप ‘शुभम्’