लोकतंत्र मनमानी
लोकतंत्र
मनमानी
जीमें बड़हार।
अब तक हैं
फहराए
झंडे छत कार।।
संविधान
सिर माथे
पाई है रसीद।
वक्त पड़े
काम आए
बहुत ही मुफीद।।
दे देते
मित्रों को
जैसे उपहार।
देशभक्ति
वसनों में
बसती है मीत।
गाए जा
गाए जा
नारों – से गीत।।
बाला को
देखा तो
टपकी है लार।
देवोपम दिखलाता
टी वी पर रूप।
गुपचुप चर
काजू फल
बतलाता सूप।।
सुर्खी में
जगमग है
पूरा अखबार।
झंडा तो
फैशन है
विकृत मर्यादा।
लटकाए
कोई भी
डाकू या दादा।।
शक्ति नहीं
सोच नहीं
कभी मत उतार।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’