ग़ज़ल
घूमने निकल पड़ता हूँ अच्छा लगता है।
कभी अच्छा सोंचता हूँ अच्छा लगता है।
शनिवार की शाम छत पे बैठकर घंटो
बातें चाँद से करता हूँ अच्छा लगता है।
अपनी मेहनत और अपने दम पर ही
जब आगे बढ़ता हूँ अच्छा लगता है।
लोग दीवाने बन के लड़की पे मरते है
मैं महादेव पे मरता हूँ अच्छा लगता है।
जीवन मे मार्गदर्शन किताबे किया करती
अक्सर मैं बुक पढ़ता हूँ अच्छा लगता है।
सही राह चुन क्यो भटक जाते है लोग
जब सही राह चलता हूँ अच्छा लगता है।
अंधकार को जीवन से मिटाया है मैंने
दीप बन के जलता हूँ अच्छा लगता है।
— शिवेश हरसूदी