विरह व्यथा
विरह व्यथा के दग्ध सेज पर,
एक दुखियारी सोई थी।
निर्मोही निर्मोक उतारो,
जाने वह कितना रोई थी।
ओ याद समन्दर से भी गहरा,
गजगामिनी सी आई आई थी।
एक सुनहरा सपन लिए,
झिझकी -सिसकी शर्माई थी।
अंग अंग कितनी कोमल है,
मानो सरिता सा निर्मल है।
दामिनी सी उसकी चंचलता,
नवल प्रात सा तन मन है।
आएगा प्रिय बाहुपाश मे,
हार गयी वह सांस सास मे।
जीवन की मधिम लौ कहती,
देखो कही आस पास में।
उसे हृदय की गीत सुनाकर,
पीड़ा का संगीत बजाकर।
छेडो मन का राग तराना,
शब्द शब्द मे प्रीति सजाकर।
— बिन्दू चौहान