काल बनाम दयाल
वैश्विक स्तरपर भारत आदि अनादि काल से ही आध्यात्मिकता की मिठास में डूबा हुआ एक अनमोल भाग्यशाली देश है, जिसकी मिट्टी में ही अनेकों गुण समाए हैं जो इस धरती पर मानवीय जीव के जन्म लेने से ही उसमें समा जाते हैं, फ़िर चाहे वह दुनिया के किसी भी देश के किसी भी कोने में जाकर बस जाए, वे गुण उसकी पीढ़ियों में भी समा जाते हैं, जिसका जीता जागता उदाहरण हम आज विश्व के कोने-कोने में बसे मूल भारतीयों अप्रवासी भारतीयों और प्रवासी भारतीयों में देख सकते हैं कि किस तरह वे आज भी भारतीय संस्कृति को अपनाकर अपने माता-पिता बूढ़े बुजुर्गों की सेवा कर काल की माया को मात देकर दयाल की शरण में है। चूंकि काल मानवीय गुणों की, परिस्थितियों की असंख्य अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थितियों में सामाहित होकर अपनी तरफ खींचता है, जिसमें से एक है मानवीय जीव के माता-पिता या बड़े बुजुर्गों के ब्रह्मालीन निवास के बाद परिवार को तोड़ने संयुक्त परिवार को विभक्त करने काल अपनी माया की चालें चलना शुरू कर देता है क्योंकि घर परिवार की रक्षा करने माता-पिता बड़े बुजुर्गों की छाया अब नहीं रहती है, इसलिए काल की माया की सफलता की क्षमता बढ़ जाती है परंतु यदि मानवीय जीव उस समय अपनी बौद्धिक निर्णय क्षमता का उपयोग कर दयाल के छरण से स्थिति को संभालता है तो फिर काल उठ भाग खड़ा होता है, जिससे मानवीय जीव की जीत होती है और जीवन सुख चैन से गुजरता है इसलिए आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे माता-पिता बड़े बुजुर्गों के ब्रह्मलीन होने से घर परिवार से उनकी साया उठ जाती है और काल घर तोड़ने सक्रिय हो जाता है जिसे विफ़ल करने दयाल के विचारों का सहारा लेना जरूरी है।यह आर्टिकल मेरे खुद के घर परिवार के अनुभव और जीवन में देखी घटनाओं पर आधारित है किसी को ठेस पहुंचाना मकसद नहीं।
हम काल माया के हमारे परिवार तोड़ने सक्रिय होने को देखें तो अनेक तरीकों में से एक जब माता पिता बड़े बुजुर्ग ब्रह्मानंद होते हैं तो यह सक्रिय हो जाता है वह तरह तरह के विचार मन में झोंकता है कि, मेरे कारण घर चल रहा है, मैं ही अधिक कमा रहा हूं, मैं ही परिवार संभाल रहा हूं, सभी मेंबर मेरे भरोसे हैं, मेरे अलावा कोई कुछ नहीं कर रहा है, मैं ही घर का पालन पोषण व पूंजी इकट्ठा कर रहा हूं पर हिस्सा सभी को देना पड़ेगा! इससे अच्छा तो मैं अलग हो जाता हूं, यह है काल की माया का खेल! जो इसकी इस चाल में आया याने फंसा और घर टूटना निश्चित है परंतु जो इन बातों से संभल कर अपनी बौद्धिक क्षमता का सकारात्मक उपयोग कर दयाल के छरण जाकर उनके विचारों से काल की माया को पराजित करता है तो उसका घर परिवार संपूर्ण जीवन भर सुखी रहता है।
हम कबीर के दोहे को देखें तो
कबीर वैरी सबल है, जीव एक रिपु पांच ।
अपने अपने स्वाद को, सभी नचावैं नाच ।।
जीव स्वयं निर्बल है। मन शत्रु और बलवान है क्योंकि उसके साथ काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार साथी हैं। जीव के शत्रु हैं। इनके द्वारा सारी दुनिया को अपने अधीन कर रखा है। अपने इन रसों एवं विषय-इन्द्रियों के द्वारा सबको नाच नचा रहा है। इनके पंजे से छूटना कठिन नहीं बल्कि असम्भव हो गया है। जिन सौभाग्यशाली गुरुमुखों को सत्पुरुषों की संगति मिल जाती है उन्हें इनसे आज़ाद होने का मार्ग मिल गया, साधन मिल गया। महापुरुषों की सहायता से उन साधनों पर आचरण कर इन शत्रुओं से आज़ाद हो जाते हैं। महापुरुष ही माया के पंजे से आज़ाद करने का साधन बतलाते हैं। वे केवल साधन ही नहीं बतलाते अपितु उनपर आचरण करवाते हैं। केवल पढ़ने सुनने में न रह जायें बल्कि आचरण में लाकर मुक्ति प्राप्त कर लें।
माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर।
आसा त्रिष्णाँ नाँ मुई, यौं कहै दास कबीर॥
कबीर कहते हैं कि प्राणी की न माया मरती है, न मन मरता है, यह शरीर ही बार-बार मरता है। अर्थात् अनेक योनियों में भटकने के बावजूद प्राणी की आशा और तृष्णा नहीं मरती वह हमेशा बनी ही रहती है।
हम काल की माया को देखेंतो,इस संसार की रचना में काल माया और दयाल दोनों शक्तियां काम कर रही हैं। काल माया की बलवती शक्ति जिसके साथ मन और मन के साथी काम-क्रोध-मोह-लोभ और अहंकार, ईष्र्या व तृष्णा,ये सब परस्पर मिले हुए हैं। इनके द्वारा माया ने आम संसारियों को अपने अधीन कर रखा है। इनके पंजे में आया हुआ जीव दुःखी और परेशान है। कोई भी इन्सान यदि यह चाहे कि मैं अपने बाहुबल, बुद्धिमत्ता या अस्त्र-शस्त्र से मन और काल माया पर विजय पा लूँ अथवा इन्हें अधीन कर लूँ तो यह ऐसा नहीं कर सकता। यदि मन माया पर विजय पाना चाहे, इनके पंजे से आज़ाद होकर दुःख परेशानियों से मुक्त होना चाहे तो उसे दयाल की चरण-शरण ग्रहण करनी होगी, तभी त्राण पा सकता है। जो काल माया सारी सृष्टि को अपनी उंगलियों पे नचाती है जो स्वयं माया भी है और सत्य भी है जो अदृश्य होकर भी सब करने में सर्वसमर्थ और सर्वशक्तिमान है वही दयाल महामाया है ।इसी महामाया से सत_रज_तम इन तीनों गुणों की उत्पत्ति हुई है और यही महामाया इन तीनों बन्धनों को पैदा भी करती है और काटती भी है ।सात्विकता राजसिकता तामसिकता तीनों इसी के बुने हुए जाल है जिनमें बुद्धि और व्यक्ति फंसे हुए है जो इन तीनों गुणों को साधकर आगे जाता है वही साधक है और वही मुक्ति और मोक्ष दोनों का स्वाद चख सकता है ।या तो स्वयं को इसके हवाले करके निश्चिन्त हो जाओ या फिर स्वयं को साधते हुए ज्ञान मार्ग और साधना से इसके कुल में प्रवेश करो बस यही 2 मार्ग है इस तक पहुँचने के !जो मूर्ख लोग भौतिक माया और ज्ञान रूपी माया को ही पार करके ऊपर नही उठ पा रहे वो योगमाया और महामाया दोनों का साक्षात्कार कभी कर ही नही सकते हैं ।दुनिया में बहुत तरह के पैशाचिक बुद्धि वाले अधर्मी लोग हैं, जो मानवों को अपने बताए हुए झूठ और फरेब के माया जाल में फंसा कर रखना चाहते हैं। जो मानव इस माया जाल को देख सकते है, वह जीवन का सत्य जानते हैं।इस माय जाल को बुनने में बहुत योगदान हमारी अज्ञानता का भी है, यह सबको विदित ही है। मन के अधीन होने से रावण को भी पराजित होना पड़ा अर्थात् असत्य से नीचा देखना पड़ा। असत् पर सत् की विजय हुई। श्रीराम जी से उसे पराजित होना पड़ा। मन और माया जो भी संसार का पसारा है, सब झूठ है। राम की भक्ति दयाल की शरण,यह सब सत् है। भक्ति ने माया अर्थात् सत्य ने असत्य पर विजय पाई। रावण की हार हुई और राम की जीत हुई।
हम दयाल की माया को देखें तो गुरुमुखों के इतने ऊँचे भाग्य हैं जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। प्रत्येक को ऐसा अवसर और संयोग नहीं मिलता जिसे पाकर जीवन को कृतार्थ और सफल बना सकें। भक्ति का रंग चढ़ाकर भगवान से मिल सकें। विरली-विरली रूहों को ऐसा सुअवसर मिलता है। जो माया को तुच्छ समझते हैं, यह भी साधारण बात नहीं। एक ओर माया की दलदल में फँसकर जीव नीच योनियों का शिकार हो जाता है, चौरासी में भटकता और युगों तक कष्ट उठाता है, दूसरी ओर सत्संग के प्रकाश में आकर संसार में रहता हुआ संसार से न्यारा रहे, कितने आनन्द की बात है। घोर कलियुग में काल माया की दलदल से निकल कर सुखी हो जाय, यह केवल गुरुमुख ही अनुभव कर सकते हैं। मगर कब? जब सत्पुरुषों की संगति मिल जाती है।
— किशन सनमुख़दास भावनानी