चौबीस दोहे “पथ होते अवरुद्ध”
तानाशाही से लुटी, बड़ी-बड़ी जागीर।
जनमत के आगे नहीं, टिकती है शमशीर।१।
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सुलभ सभी कुछ है यहाँ, दुर्लभ बिन तदवीर।
कामचोर ही खोजते, दुनिया में तकदीर।२।
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गद्दारों के साथ में, आयुध होते क्रुद्ध।
आगे बढ़ने के सभी, पथ होते अवरुद्ध।३।
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माताओं की लोरियाँ, और बहन का प्यार।
बचा हुआ है आज भी, रिश्तों का संसार।४।
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सावन में सूखा पड़े, सरदी में बरसात।
फसलें अब भी झेलतीं, पाले का उत्पात।५।
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आवारा मौसम हुए, हुआ बसन्त उदास।
उपवन में कैसे बुझे, भँवरों की अब प्यास।६।
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अभी नहीं मधुमास में, चहके सुमन पलाश।
बेर-बेल में आयेगी, कैसे भला मिठास।७।
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सकते में हैं लोग सब, कैसे सुधरें हाल।
सरदी में सूखे पड़े, झील, सरोवर-ताल।८।
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मानवता के भवन की, दहल रही दहलीज।
वैसी फसलें काट लो, बोये जैसे बीज।९।
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बदले जीवन ढंग हैं, बदले रस्म-रिवाज।
ओढ़ सभ्यता पश्चिमी, हुआ असभ्य समाज।१०।
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नकली सी मुसकान हैं, नकली हैं उपहार।
फिर कैसे मिल पायेगा, नैसर्गिक शृंगार।११।
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गंगा, यमुना-शारदा, संगम है अभिराम।
बनते तप-जप बुद्धि से, जग में सारे काम।१२।
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ले जाता है गर्त में, मानव को अभिमान।
जो घमण्ड में चूर हैं, उनको वो होते नादान।१३।
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जग को जब लगने लगा, डूब रही है नाव।
बिन माँगे देने लगे, अपने कुटिल सुझाव।१४।
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धुल जाते मिल-बैठकर, मन के सब सन्ताप।
सातों सुर के योग से, बनता है आलाप।१५।
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परमेश्वर के नाम पर, होते वाद-विवाद।
लेकिन संकट के समय, ईश्वर आता याद।१६।
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दम्भ और अभिमान में, मानव रहता चूर।
लेकिन पग-पग पर मनुज, है कितना मजबूर।१७।
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कण-कण में जो रमा है, वो ही है भगवान।
मन्दिर-मस्जिद में उसे, खोज रहा नादान।१८।
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ईश्वर-अल्ला एक है, क्यों करते हो भेद।
जग-पालक के नाम पर, क्यें होते मतभेद।१९।
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फिरकों में बँटने लगा, अब तो सभ्य समाज।
पूजा और अजान भी, बना दिखावा आज।२०।
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कुटिल नहीं होते कभी, जीवनभर सन्तुष्ट।
कथित सन्त हैं जगत में, अब भी कामी-दुष्ट।२१।
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आये हैं जो धर्म के, बनकर ठेकेदार।
इनसे मैली ही मैली हुई, गंगा जी की धार।२२।
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ओढ़ लबादा सन्त का, आये हैं शैतान।
रामनाम के नाम पर, बन बैठे धनवान।२३।
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मानवता अपनाइए, यही हमारा मन्त्र।
वासनाओं के लिए क्यों, ढोंग और षड़यन्त्र।२४।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)