कविता

बदलाव

नहीं पहनाता कोई अब

सोने की पगड़ी किसी को,

वे लोग भी अब कहाँ रहे

जो बनाया करते थे

सोने के महीन तार,

बुना करते थे

तल्लीन होकर ताने-बाने

यशोगान करते हुए,

भर देते थे

अपनी सम्पूर्ण कलाकारी, श्रद्धा और

आत्मीय संवेदनाएँ

पगड़ी में

जो प्रतीक हुआ करती थीं

आदमी के

महामानव होने की ।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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