बदलाव
नहीं पहनाता कोई अब
सोने की पगड़ी किसी को,
वे लोग भी अब कहाँ रहे
जो बनाया करते थे
सोने के महीन तार,
बुना करते थे
तल्लीन होकर ताने-बाने
यशोगान करते हुए,
भर देते थे
अपनी सम्पूर्ण कलाकारी, श्रद्धा और
आत्मीय संवेदनाएँ
पगड़ी में
जो प्रतीक हुआ करती थीं
आदमी के
महामानव होने की ।
— डॉ. दीपक आचार्य