ग़ज़ल “शहर-ए-दिल्ली को बदलने दीजिए”
आग को सीने में जलने दीजिए
जमुन से गंगा निकलने दीजिए
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अपनी अस्मत को बचाने के लिए
फूल को काँटों में पलने दीजिए
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अज़नबी कुछ राहग़ीरों के लिए
रहग़ुज़र में दीप जलने दीजिए
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इश्क की होती रवायत अलहदा
बात को आगे भी चलने दीजिए
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कह रहीं हैं पर्बतों की चोटियाँ
बर्फ की परतें पिघलने दीजिए
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“आपका” अन्दाज़ बिल्कुल ‘आप’ सा
शहर-ए-दिल्ली को बदलने दीजिए
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राज़ खुलने में नहीं अब देर है
“रूप” को साँचे में ढलने दीजिए
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)