दोहे- तू और चाँद
इतराता है चाँद तो, पा तुझ जैसा रूप।
सच,तेरा मुखड़ा लगे, हर पल मुझे अनूप।।
चाँद बहुत ही है मधुर, इतराता भी ख़ूब।
जो भी देखे,रूप में, वह जाता है डूब।।
कभी चाँद है पूर्णिमा, कभी चाँद है ईद।
कभी चौथ करवा बने, करते हैं सब दीद।।
जिसकी चाहत वह सदा, इतराता है नित्य।
आसमान,तारे सुखद, चाँद और आदित्य।।
इतराने में है अदा, इतराने में प्यार।
इतराना चंचल लगे, अंतस का अभिसार।।
इतराकर के चाँद तो, देता यह पैग़ाम।
जो तेरे उर में बसा, प्रीति उसी के नाम।।
इतराकर के चाँद तो, ले बदली को ओट।
पर सच उसके प्यार में, किंचित भी नहिं खोट।।
कितना प्यार चाँद है, कितना प्यारा प्यार।
नेह नित्य होकर फलित, करे सरस संसार।।
छत से देखो तो करे, चाँद आपसे बात।
कितना प्यारा दोस्त की, मिली हमें सौगात।।
अमिय भरा है चाँद में, किरणों का अम्बार।
चाँद रखे युग से यहाँ, अपनेपन का सार।।
— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे