वे आउट ऑफ स्टेशन हैं!
दिल दिया है जां भी देगें ऐ वतन तेरे लिए। ऐसे गाने अकसर किसी राष्ट्रीय दिवस पर बजते हैं। आज सोसायटी में भी गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारी थी। गाना वहीं बज रहा था। इसे मनाने कार्यालय जाने के लिए मैं तैयार बैठा ड्राईवर की प्रतीक्षा में था। ये गीतकार भी न, भावनाओं से खूब खिलवाड़ करते हैं! इस गाने से देश के लिए जोर की फीलिंग आई। मैं रोमांचित था। इच्छा हुई कि बस अभी देश के लिए कुछ कर गुजरूँ! फिर ध्यान हुआ कि किसी चीन या पाकिस्तान की सीमा पर खड़ा मैं कोई सैनिक नहीं कि देश भक्ति में सदैव मुस्तैद ही रहूँ। नार्मल भाव से विचार किया। ठहरे हम ऑफीसर, जो सैनिकों की तरह ‘डू आर डाईं’ कहते नहीं फिरते! बल्कि मौके की नज़ाकत भाँप संतुलित दिमाग से काम लेते हैं। वैसे यदि अफसर देशप्रेमी बनने पर उतर आए तो बिना बंदूक़ चलाए पिछड़े से पिछड़े इलाके पर संविधान को कब्जा दिलवा दे! मतलब वह चाहे तो विकास, समानता, बंधुत्व और सुशासन जैसी आजादी के समय की संकल्पनाएं, जो संविधान के पन्ने में बैठी आराम फरमा रही हैं, को वहाँ से निकालकर जमीन पर मूर्तिमान कर दे! लेकिन समय देखा। लगभग आठ बजने वाले थे। ड्राइवर के आने में विलंब होता जान पड़ा। अब मुझे झंडारोहण कार्यक्रम में समय से न पहुँचकर इसे सेलिब्रेट न कर पाने की चिंता सताने लगी थी।
यह सही ही है कि राष्ट्र के लिए भी मन में कुछ-कुछ होता है। इसे व्यक्त करने के लिए इसीलिए साल में कुछ तिथियां निश्चित है कि भावुकता के जोश में हम इस दिन अपनी इन भावनाओं को सेलिब्रेट करें! लेकिन सैनिक, कवि, नेता या भाषणबाज इन तिथियों के मोहताज नहीं होते।
याद आया। कुछ दिन पहले एक रिटायर्ड सैनिक जी से सीमा पर मुस्तैद सैनिकों का जज्बा सुनकर देश के लिए भावुक किस्म का हो आया था। देश-भावना से मेरे हृदय का घड़ा ऐसा भरा कि छलकने को हो आया लेकिन सैनिक जी की एक बात से इस छलकवासूं घड़े पर ढक्कन पड़ गया था। उन्होंने सैनिकों के बीच प्रचलित एक कहावत सुना दिया था कि यदि किसी देश को अमेरिका के हथियार, भारतीय सैनिक और अंग्रेज अधिकारी मिल जाए तो वह पूरी दुनियां को जीत लेगा। इस बात में अधिकारियों की बेइज्जती थी। मैं उन सैनिक महोदय से मुँह चुराने लगा था। बल्कि मन भी मसोसा कि बेचारे भारतीय अधिकारियों के इतना सब कुछ करने के बाद भी सैनिकों की नजर में उनकी योग्यता की कोई गिनती नहीं। सही में इससे मुझे दुख भी हुआ!
अधिकारियों की अकड़ और उनके रुतबे वाली योग्यता पर सैनिक गर्व करें और अंग्रेज अधिकारियों से इन्हें कमतर न आकें तथा विश्व विजय अभियान में भरोसा कर इनसे भी अपने साथ कदमताल कराएं। इसके लिए सैनिक जी से कहने को हुआ था कि तनिक बाग हिली नहीं लेकर सवार उड़ जाता है, को इस देश के अधिकारी हंड्रेड परसेंट फॉलो करते हैं। गवर्निंग बाॅडी के इशारे पर मुस्तैद रहकर इसी अकड़ और रुतबे के सहारे पलक झपकते बहुत-कुछ कर गुजारते हैं। लेकिन फिर मामला विश्व विजय अभियान से जुड़ा था तो इससे भी उम्दा किस्म की योग्यता, जो कम से कम अंतरराष्ट्रीय स्तर का हो, की आवश्यकता पर मंथन करने लगा। तभी एक घटना याद आई।
दरअसल देश में सुशासन हो या रामराज इसकी मनोकामना प्रत्येक भारतीय के मन में है। इसपर मतभेद की गुंजाइश नहीं। आजादी के जस्ट बाद राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत होने का क्षण था, उन क्षणों में देश के लिए अच्छी-अच्छी बातें सोची गई। वैसे भावुकता के क्षण में हम अच्छी बातें ही सोचते हैं। देश की सांस्कृतिक-भौगोलिक विविधता के बरक्स डिफरेंट-डिफरेंट समस्याओं का पूर्वानुमान करके इसके निवारणार्थ तदनुसार भिन्न-भिन्न संकल्प देशवासियों को आत्मार्पित कराया गया। लेकिन इसे भुलक्कड़पन कहें या फितरतबाजी, शनै:शनै ये संकल्प हम भूलते गए। भावुकता का भूत उतर जाने पर कुछ ऐसा ही होता है। फिलहाल आजादी के बाद पैदा हो रहे देश के मनीषी इसे ताड़ रहे हैं इसीलिए विस्मृत होती मनोकामनाएं, संकल्पों, प्रकल्पों को देशहित में पुनि-पुनि स्मरण कराने के लिए अलग-अलग राष्ट्रीय दिवस निर्धारित करते जा रहे हैं। इसमें देश को फायदा है क्योंकि साल दर साल दिवसानुसार सुशासन के संकल्पों का हमें वैसे ही स्मरण होता रहेगा जैसे माला फेरते समय एक-एक कड़ी के साथ भगवान को याद करते हैं।
इस माला में एक कड़ी सुशासन दिवस का है। इसे समारोह पूर्वक मनाया जाना था। इस दिन आला दर्जे के किसी सेवानिवृत्त सुशासन बाबू को मुख्य अतिथि बनाकर सुशासन का पाठ पढ़ना था। मुख्य अतिथि खोजने की जिम्मेदारी उन महानुभाव को दी गई जिनकी आला दर्जे के सुशासन बाबुओं में अच्छी पकड़ थी। लेकिन उस दिन उन्होंने सबेरे सबेरे निराशाजनक आवाज में सूचित किया था कि “क्या कहें, जिस भी रिटायर्ड बड़े ब्यूरेक्रेट से बात हो रही है उनसे यही सुनने को मिल रहा है कि वे आउट ऑफ स्टेशन हैं।” रिटायर्ड अफसर के लिए यह बात मैं पहली बार सुना। बावजूद इसके, उनके स्वर में निराशा की गहराई ताड़कर उनसे पूँछे बिना नहीं रह सका कि यह आउट ऑफ स्टेशन होना क्या बला है? उन्होंने इसे सेवानिवृत्त नौकरशाहों का विदेश में अपने बाल-बच्चों के साथ होना बताया।
खैर मुझे अपनी नासमझी पर आत्मग्लानि हुई। आखिर लोग जीवन खपा देते हैं नौकरी में, तब जाकर घर-बार सँवरता है! जाहिर सी बात है आत्मीय लगाव इस घर से ही होगा। अब आला दर्जे का नौकरशाह है तो आला ही दर्जे का डेस्टिनेशन घर के लिए चुनेगा। जैसे कि अमेरिका, कनाडा इंग्लैंड, यूरोप आदि आदि। रिटायरमेंट पाते ही ये वहाँ भागते हैं और इस ‘डेस्टिनेशन’ से ही ‘स्टेशन’ वालों पर अपने सुशासन का रौब गालिब कर गर्वोक्ति में कहते हैं कि भइ मैं तो आउट ऑफ स्टेशन हूँ।
जो भी हो, रिटायर्ड अधिकारियों का यह “आउट आफ स्टेशन हैं” कहना उन्हें सुशासन का लाभ मिले बिना संभव नहीं। सुशासन का तरीका उन्हें विश्व में कहीं भी डेस्टिनेशन बनाने के योग्य बना देता है। इससे स्वत: प्रमाणित है कि भारतीय अधिकारियों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की योग्यता विद्यमान है और जो विश्व विजय अभियान के लिए सर्वथा योग्य हैं।
खैर, अधिकारियों की इस काबिल-ए-तारीफी की चर्चा सैनिक जी से करने को उद्धत हुआ कि वे ही आदरपूर्वक मुझसे कह बैठे कि आप जैसे अधिकारी इतने सहज और सरल ढंग से मिल रहे हैं, यह प्रशंसा की बात है। अब मेरे चौंकने की बारी थी जैसे मेरी दुखती रग पर उँगली रख दिया हो! क्योंकि इस कथन में मेरी अयोग्यता चिह्नित हुई थी। मुझे सुशासन वाले दिन मुख्य अतिथि बने बेचारे सेवानिवृत्त नौकरशाह याद आ गए। वे सरल ही नहीं, सीधे और सज्जन भी थे। इसे मैंने उनकी अयोग्यता माना था। अन्यथा वे भी ‘ऑउट ऑफ स्टेशन हूँ’ कहने की योग्यता अर्जित कर लेते। यही नहीं, उस गोष्ठी में सुशासन करने के जिस तरीके का गुर-गाँठ उन्होंने खोला वह भी रास नहीं आया था। उन मुख्य अतिथि से मैं केवल इसलिए खुश था कि देश में ऐसे नौकरशाह अभी भी है कि सुशासन दिवस मनाया जा सके।
कुलमिलाकर सैनिक जी से अपने लिए सुने प्रशंसात्मक कथन से अप्रभावित रहा। मैंने “वे आउट आफ स्टेशन हैं” को फाइनली अंतरराष्ट्रीय स्तर की योग्यता माना। इसे बताकर उन फौजी से कहने वाला था कि भारत के अधिकारियों की इस योग्यता का विश्व विजय अभियान के दिन वे सदुपयोग कर सकते हैं। लेकिन विदेश भागने की बात पर नौकरशाह तो नौकरशाह! अचानक माल्या, चोकसी और न जाने कौन-कौन भगोड़े याद आ गए! वैसे इस भगोड़ेपन में कोई नई बात नहीं थी, लेकिन इससे भारत जैसा देश प्रतिभा पलायन का दंश झेलता है। मैंने आउट आफ स्टेशन कहने वालों को भी प्रतिभा पलायन की कैटेगरी में मान लिया। इसलिए इस दंश को बढ़ावा न मिले इसके स्थान पर योग्यता के दूसरे विकल्प पर विचार किया।
अब मेरा ध्यान नेतावर्ग पर गया। इस वर्ग की एक खूबी यह है कि चाहे कुछ हो भारतीय नेतृत्व देश छोड़कर कभी पलायित नहीं होता। दूसरे आजकल भारतीय नेताओं का मॉडल दुनियां भी स्वीकार कर रही है। इसका प्रमाण भी है कि नेतागिरी के दम पर ही भारत विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है। इसलिए अधिकारियों की बजाय नेताओं की ओर देखना चाहिए। बस जैसे मुझे क्लू मिल गया! अंततः मैं गंभीरता के साथ सैनिक महोदय से कहना चाहा कि भारत को विश्व विजेता केवल देश के नेता ही बना सकते हैं। लेकिन अचानक मेरे मुँह से निकला, क्यों न आप भी राजनीति में हाथ अजमाए!
बेचारे सैनिक जी मेरी इस सलाहियत पर संकोच में पड़कर कुछ कहने में हिचकते दिखाई पड़े लेकिन अगले ही पल निधड़क होकर वे बोलना शुरू कर दिए,
“देखिए, मेरे अंदर सैनिकपन तो है ही भले ही रिटायर हूँ, अधिकारियों वगैरह के सामने अपनी बात बेहिचक कह लेता हूँ। मेरे गाँव में ज्यादातर लोग गरीब हैं, वे अपनी बात कहने से डरते हैं, उनकी समस्याओं को अधिकारियों के आगे मैं ही उठाता हूँ। इससे गाँव में मुझे लोकप्रियता भी मिली है। पिछला पंचायत चुनाव लड़ने वाला था, इसे जीत भी लेता, लेकिन ऐन मौके पर सीट आरक्षित हो गई! इसे बदलवाने का खूब प्रयास किया लेकिन काम नहीं बना…मैं तो कहता हूँ अधिकारियों से मिलकर रहना चाहिए। मैंने गाँव वालों से कहा भी है कि अधिकारियों-कर्मचारियों को कुछ ले-देकर अपना फँसा काम करा लिया करो..पैरवी मैं कर देता हूँ..आखिर आप जैसे अधिकारियों-कर्मचारियों का ध्यान मेरे जैसे लोग नहीं रखेंगे तो और कौन रखेगा!”
मेरे पास कहने को अब कुछ नहीं बचा था। मैं समझ गया था कि “आउट आफ स्टेशन हूँ” कहने के लिए नौकरशाही और नेताशाही में गठबंधन होना जरूरी है, यह गठबंधन अफसरानों को योग्य बनाकर उन्हें विश्व विजय के काबिल बना सकता है।
इधर सुबह के आठ बज गए। तिहत्तरवें गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने के लिए मैं रेडी था। डोरवेल बजा! दरवाजा खोला तो ‘दिल दिया है जां भी देगें ऐ वतन तेरे लिए” गाने की सुमधुर स्वर लहरी एक झोंके के सदृश कानों में पड़ी। इधर ड्राइवर को सामने खड़ा देख मेरे मन का मनका फिरा और फालतू के विचारों से मुक्ति पाकर मैं गणतंत्र दिवस मनाने चल पड़ा था।
यह सही ही है कि राष्ट्र के लिए भी मन में कुछ-कुछ होता है। इसे व्यक्त करने के लिए इसीलिए साल में कुछ तिथियां निश्चित है कि भावुकता के जोश में हम इस दिन अपनी इन भावनाओं को सेलिब्रेट करें! लेकिन सैनिक, कवि, नेता या भाषणबाज इन तिथियों के मोहताज नहीं होते।
याद आया। कुछ दिन पहले एक रिटायर्ड सैनिक जी से सीमा पर मुस्तैद सैनिकों का जज्बा सुनकर देश के लिए भावुक किस्म का हो आया था। देश-भावना से मेरे हृदय का घड़ा ऐसा भरा कि छलकने को हो आया लेकिन सैनिक जी की एक बात से इस छलकवासूं घड़े पर ढक्कन पड़ गया था। उन्होंने सैनिकों के बीच प्रचलित एक कहावत सुना दिया था कि यदि किसी देश को अमेरिका के हथियार, भारतीय सैनिक और अंग्रेज अधिकारी मिल जाए तो वह पूरी दुनियां को जीत लेगा। इस बात में अधिकारियों की बेइज्जती थी। मैं उन सैनिक महोदय से मुँह चुराने लगा था। बल्कि मन भी मसोसा कि बेचारे भारतीय अधिकारियों के इतना सब कुछ करने के बाद भी सैनिकों की नजर में उनकी योग्यता की कोई गिनती नहीं। सही में इससे मुझे दुख भी हुआ!
अधिकारियों की अकड़ और उनके रुतबे वाली योग्यता पर सैनिक गर्व करें और अंग्रेज अधिकारियों से इन्हें कमतर न आकें तथा विश्व विजय अभियान में भरोसा कर इनसे भी अपने साथ कदमताल कराएं। इसके लिए सैनिक जी से कहने को हुआ था कि तनिक बाग हिली नहीं लेकर सवार उड़ जाता है, को इस देश के अधिकारी हंड्रेड परसेंट फॉलो करते हैं। गवर्निंग बाॅडी के इशारे पर मुस्तैद रहकर इसी अकड़ और रुतबे के सहारे पलक झपकते बहुत-कुछ कर गुजारते हैं। लेकिन फिर मामला विश्व विजय अभियान से जुड़ा था तो इससे भी उम्दा किस्म की योग्यता, जो कम से कम अंतरराष्ट्रीय स्तर का हो, की आवश्यकता पर मंथन करने लगा। तभी एक घटना याद आई।
दरअसल देश में सुशासन हो या रामराज इसकी मनोकामना प्रत्येक भारतीय के मन में है। इसपर मतभेद की गुंजाइश नहीं। आजादी के जस्ट बाद राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत होने का क्षण था, उन क्षणों में देश के लिए अच्छी-अच्छी बातें सोची गई। वैसे भावुकता के क्षण में हम अच्छी बातें ही सोचते हैं। देश की सांस्कृतिक-भौगोलिक विविधता के बरक्स डिफरेंट-डिफरेंट समस्याओं का पूर्वानुमान करके इसके निवारणार्थ तदनुसार भिन्न-भिन्न संकल्प देशवासियों को आत्मार्पित कराया गया। लेकिन इसे भुलक्कड़पन कहें या फितरतबाजी, शनै:शनै ये संकल्प हम भूलते गए। भावुकता का भूत उतर जाने पर कुछ ऐसा ही होता है। फिलहाल आजादी के बाद पैदा हो रहे देश के मनीषी इसे ताड़ रहे हैं इसीलिए विस्मृत होती मनोकामनाएं, संकल्पों, प्रकल्पों को देशहित में पुनि-पुनि स्मरण कराने के लिए अलग-अलग राष्ट्रीय दिवस निर्धारित करते जा रहे हैं। इसमें देश को फायदा है क्योंकि साल दर साल दिवसानुसार सुशासन के संकल्पों का हमें वैसे ही स्मरण होता रहेगा जैसे माला फेरते समय एक-एक कड़ी के साथ भगवान को याद करते हैं।
इस माला में एक कड़ी सुशासन दिवस का है। इसे समारोह पूर्वक मनाया जाना था। इस दिन आला दर्जे के किसी सेवानिवृत्त सुशासन बाबू को मुख्य अतिथि बनाकर सुशासन का पाठ पढ़ना था। मुख्य अतिथि खोजने की जिम्मेदारी उन महानुभाव को दी गई जिनकी आला दर्जे के सुशासन बाबुओं में अच्छी पकड़ थी। लेकिन उस दिन उन्होंने सबेरे सबेरे निराशाजनक आवाज में सूचित किया था कि “क्या कहें, जिस भी रिटायर्ड बड़े ब्यूरेक्रेट से बात हो रही है उनसे यही सुनने को मिल रहा है कि वे आउट ऑफ स्टेशन हैं।” रिटायर्ड अफसर के लिए यह बात मैं पहली बार सुना। बावजूद इसके, उनके स्वर में निराशा की गहराई ताड़कर उनसे पूँछे बिना नहीं रह सका कि यह आउट ऑफ स्टेशन होना क्या बला है? उन्होंने इसे सेवानिवृत्त नौकरशाहों का विदेश में अपने बाल-बच्चों के साथ होना बताया।
खैर मुझे अपनी नासमझी पर आत्मग्लानि हुई। आखिर लोग जीवन खपा देते हैं नौकरी में, तब जाकर घर-बार सँवरता है! जाहिर सी बात है आत्मीय लगाव इस घर से ही होगा। अब आला दर्जे का नौकरशाह है तो आला ही दर्जे का डेस्टिनेशन घर के लिए चुनेगा। जैसे कि अमेरिका, कनाडा इंग्लैंड, यूरोप आदि आदि। रिटायरमेंट पाते ही ये वहाँ भागते हैं और इस ‘डेस्टिनेशन’ से ही ‘स्टेशन’ वालों पर अपने सुशासन का रौब गालिब कर गर्वोक्ति में कहते हैं कि भइ मैं तो आउट ऑफ स्टेशन हूँ।
जो भी हो, रिटायर्ड अधिकारियों का यह “आउट आफ स्टेशन हैं” कहना उन्हें सुशासन का लाभ मिले बिना संभव नहीं। सुशासन का तरीका उन्हें विश्व में कहीं भी डेस्टिनेशन बनाने के योग्य बना देता है। इससे स्वत: प्रमाणित है कि भारतीय अधिकारियों में अंतरराष्ट्रीय स्तर की योग्यता विद्यमान है और जो विश्व विजय अभियान के लिए सर्वथा योग्य हैं।
खैर, अधिकारियों की इस काबिल-ए-तारीफी की चर्चा सैनिक जी से करने को उद्धत हुआ कि वे ही आदरपूर्वक मुझसे कह बैठे कि आप जैसे अधिकारी इतने सहज और सरल ढंग से मिल रहे हैं, यह प्रशंसा की बात है। अब मेरे चौंकने की बारी थी जैसे मेरी दुखती रग पर उँगली रख दिया हो! क्योंकि इस कथन में मेरी अयोग्यता चिह्नित हुई थी। मुझे सुशासन वाले दिन मुख्य अतिथि बने बेचारे सेवानिवृत्त नौकरशाह याद आ गए। वे सरल ही नहीं, सीधे और सज्जन भी थे। इसे मैंने उनकी अयोग्यता माना था। अन्यथा वे भी ‘ऑउट ऑफ स्टेशन हूँ’ कहने की योग्यता अर्जित कर लेते। यही नहीं, उस गोष्ठी में सुशासन करने के जिस तरीके का गुर-गाँठ उन्होंने खोला वह भी रास नहीं आया था। उन मुख्य अतिथि से मैं केवल इसलिए खुश था कि देश में ऐसे नौकरशाह अभी भी है कि सुशासन दिवस मनाया जा सके।
कुलमिलाकर सैनिक जी से अपने लिए सुने प्रशंसात्मक कथन से अप्रभावित रहा। मैंने “वे आउट आफ स्टेशन हैं” को फाइनली अंतरराष्ट्रीय स्तर की योग्यता माना। इसे बताकर उन फौजी से कहने वाला था कि भारत के अधिकारियों की इस योग्यता का विश्व विजय अभियान के दिन वे सदुपयोग कर सकते हैं। लेकिन विदेश भागने की बात पर नौकरशाह तो नौकरशाह! अचानक माल्या, चोकसी और न जाने कौन-कौन भगोड़े याद आ गए! वैसे इस भगोड़ेपन में कोई नई बात नहीं थी, लेकिन इससे भारत जैसा देश प्रतिभा पलायन का दंश झेलता है। मैंने आउट आफ स्टेशन कहने वालों को भी प्रतिभा पलायन की कैटेगरी में मान लिया। इसलिए इस दंश को बढ़ावा न मिले इसके स्थान पर योग्यता के दूसरे विकल्प पर विचार किया।
अब मेरा ध्यान नेतावर्ग पर गया। इस वर्ग की एक खूबी यह है कि चाहे कुछ हो भारतीय नेतृत्व देश छोड़कर कभी पलायित नहीं होता। दूसरे आजकल भारतीय नेताओं का मॉडल दुनियां भी स्वीकार कर रही है। इसका प्रमाण भी है कि नेतागिरी के दम पर ही भारत विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है। इसलिए अधिकारियों की बजाय नेताओं की ओर देखना चाहिए। बस जैसे मुझे क्लू मिल गया! अंततः मैं गंभीरता के साथ सैनिक महोदय से कहना चाहा कि भारत को विश्व विजेता केवल देश के नेता ही बना सकते हैं। लेकिन अचानक मेरे मुँह से निकला, क्यों न आप भी राजनीति में हाथ अजमाए!
बेचारे सैनिक जी मेरी इस सलाहियत पर संकोच में पड़कर कुछ कहने में हिचकते दिखाई पड़े लेकिन अगले ही पल निधड़क होकर वे बोलना शुरू कर दिए,
“देखिए, मेरे अंदर सैनिकपन तो है ही भले ही रिटायर हूँ, अधिकारियों वगैरह के सामने अपनी बात बेहिचक कह लेता हूँ। मेरे गाँव में ज्यादातर लोग गरीब हैं, वे अपनी बात कहने से डरते हैं, उनकी समस्याओं को अधिकारियों के आगे मैं ही उठाता हूँ। इससे गाँव में मुझे लोकप्रियता भी मिली है। पिछला पंचायत चुनाव लड़ने वाला था, इसे जीत भी लेता, लेकिन ऐन मौके पर सीट आरक्षित हो गई! इसे बदलवाने का खूब प्रयास किया लेकिन काम नहीं बना…मैं तो कहता हूँ अधिकारियों से मिलकर रहना चाहिए। मैंने गाँव वालों से कहा भी है कि अधिकारियों-कर्मचारियों को कुछ ले-देकर अपना फँसा काम करा लिया करो..पैरवी मैं कर देता हूँ..आखिर आप जैसे अधिकारियों-कर्मचारियों का ध्यान मेरे जैसे लोग नहीं रखेंगे तो और कौन रखेगा!”
मेरे पास कहने को अब कुछ नहीं बचा था। मैं समझ गया था कि “आउट आफ स्टेशन हूँ” कहने के लिए नौकरशाही और नेताशाही में गठबंधन होना जरूरी है, यह गठबंधन अफसरानों को योग्य बनाकर उन्हें विश्व विजय के काबिल बना सकता है।
इधर सुबह के आठ बज गए। तिहत्तरवें गणतंत्र दिवस पर तिरंगा फहराने के लिए मैं रेडी था। डोरवेल बजा! दरवाजा खोला तो ‘दिल दिया है जां भी देगें ऐ वतन तेरे लिए” गाने की सुमधुर स्वर लहरी एक झोंके के सदृश कानों में पड़ी। इधर ड्राइवर को सामने खड़ा देख मेरे मन का मनका फिरा और फालतू के विचारों से मुक्ति पाकर मैं गणतंत्र दिवस मनाने चल पड़ा था।