बच्चो की बदलती मानसिकता
ये मेरा अपना अभिप्राय है जो इतने साल गृहस्थी चलाने से और शिक्षण कार्य के दौरान अनुभव किसी उसीसे बना है।याद है जब हम छोटे थे तो गिने चुने कपडें और खिलौने ही नहीं कोई भी चीज जरूरत से ज्यादा नहीं मिला करती थी।चाहे उस वक्त सब के आर्थिक हालत ठीक नहीं थे ऐसा नहीं था किंतु एक रवानी थी जरूरत से ज्यादा कुछ भी लेना नहीं यानी फजूलखर्ची नहीं करनी।जिसे आजकल फैशन में ’मिनिमाइजेशन’ कहते है।
मेरी बेटी को बेटी बड़ी हो गई थी तो उसे मिनी माउस वाला छोटा सा बैग नहीं चाहिए था,तो मैंने उठाके मेरी काम करने आने वाली कोकिला की बेटी को दे दिया।दूसरे दिन जब कोकिला आई तो उसने बताया कि वह उसे सारा दिन उठाके फिरती रही और रात को भी साथ ले,गले से लगा कर सोई थी।उसके बाद भी जब भी आती थी उसके कंधे पर बैग जरूर दिखता था।
हम भी अपनें खिलौनों से प्यार होता था क्योंकि वे कम हुआ करते थे।कपड़ों में भी कुछ खास होते थे जिसे हम ज्यादा पसंद करते थे और जब तक अच्छे हालत में रहे उसिको पहनना पसंद करते है।और जब खराब हो जाते थे तो उसे फेंकना या किसी को देने का दिल नहीं करता था।
मतलब हम अपने कपड़ों से,खिलौनों से यानि की अपनी चीजों से प्यार करते थे।
यहीं हमारा प्यार सीखने की रीत हुआ करती थी शायद।आज बच्चों को माता पिता से भी अपने मतलब तक का ही प्यार होता दिखता है चीजों को तो छोड़िए।
ऐसे हालातों में हम बच्चों के वर्तन में सहजिकता और प्रेम कैसे ला पाएंगे? लगाव नहीं हो जाता उससे पहले ही हम एक विकल्प दे देते है,उनको समय तो देना चाहिए जो खिलौना या कोई कपड़ा कुछ भी दिलवाते उससे उसकी पहचान हो,वह उसके कितने काम का है कितना पसंद है,ये समझ में आएं उतना समय देंगे तो उनकी मानसिकता बदल जायेगी।आज कल बच्चों में अलगाव और अनमनापन बढ़ता जा रहा है उसे कम करने के लिए उनमें ठहराव लाने के लिए ऐसे कदम उठाना आवश्यक है।आज के अभिभावकों के लिए बच्चों के प्रति जागरूक होना आवश्यक बन जाता है।शायद यही बच्चे बड़े हो कर कोई भी जिम्मेवारी बगैर जिंदगी की मौज करने करिए लिव इन रिलेशन के प्रति आकर्षित करेंगे।इस रिलेशन में सब कुछ तो है शादी के अलावा।कोई जिम्मेवारी नहीं,घर गृहस्थी नहीं,बच्चा नहीं सिर्फ भौतिक सुख की लालसा में साथ रहना पसंद करने लग जातें है।
— जयश्री बिरमि