वह नीम का पेड़
वह नीम का पेड़
बारिश रूकी ही थी कि मैं फिर उसी नीम के पेड़ के पास आकर खड़ा हो गया।इस उम्मीद में कि शायद इस बार तो कोंपले फूट ही आएंगी।यह क्रम रोजाना का ही तो था,पूरे बारह महीने…लेकिन वह ठूंठ ही बनकर रह गया था।तीन साल भी तो हो गए थे किन्तु उसपर बहार नहीं आई तो नहीं आई।एक समय था जब वह कितना हरा-भरा था। चिड़ियाएं उसपर यहां वहां फुदकती रहतीं। धनेश पक्षी अपने जोड़े के साथ सुबह शाम अपनी विशिष्ट स्वर लहरियों से लुभाते। नीम का पेड़ होता भी तो है सौ बीमारियों का एक इलाज।
अचानक क्या हुआ कि वह सूखता ही चला गया।पहले मुझे लगा कि शायद पतझड़ के कारण सारे पत्ते झड़ गए हों लेकिन बरसात के मौसम में कौन सा पतझड़! हां, बरसात में ही तो पत्ते पीले पड़ना शुरू हो गए थे। पेड़ की छाल भी तो निकलकर गिरने लगी थी। किन्तु तब इस बात का जरा भी अहसास नहीं था कि पेड़ पूरी तरह से सूख जाएगा। जब बसंत ऋतु भी गुजर गई,तब उसकी हालत देखकर यह विचार भी मन में आया कि क्या इंसान की तरह पेड़ -पौधे भी बीमार होते हैं! मुझे बाबूजी का स्मरण हो आया।वे भी तो बीमार नहीं थे लेकिन उम्र के साथ उनका शरीर भी ढलता ही जा रहा था।उनकी त्वचा पर पड़ती सलवटें देखकर मुझे बेचैनी होने लगती, कुछ घबराहट भी होती, मैं चिंतित होने लगता तो वे मेरे मनोभावों को पढ़ जाते और कहते भी कि शरीर को तो ढलना ही है।जब हम उनका जन्मदिन मनाते तो वे मना कर देते। कहते भी कि भला इस उम्र में क्या जन्मदिन मनाना। अपने बाल गोपालों के जन्मदिन मनाओं और खुशियां बांटों।
उम्रदराज होने पर आने वाले जन्मदिन पर भला कौन उत्साह और उमंग के साथ हर्षोल्लास मनाता है। शायद तब उन्हें आभासित होता हो कि उम्र घट रही है। जाना तो हर किसी को है लेकिन भला कौन अपनों का बिछोह चाहता है…और इसे सह पाता है । यह तो प्रकृति का नियम है कि जो आया है उसे आज नहीं तो कल जाना है और बाबूजी भी तो एक दिन ऐसे ही अचानक चल बसे थे। किसी का अचानक चल देना,गहरा आघात पहुंचाता है।पिता ज़िन्दगी की धूप में घनी छांव ही तो होते हैं…वैसे ही जैसे तपती दोपहरी में बरगद की छांव।
उस दिन बाबूजी के गुजर जाने पर जो दर्द महसूस हुआ था, नीम के पेड़ के सूख जाने पर वही दर्द,वही पीड़ा आसपास के वातावरण में, पक्षियों में और यहां तक की स्वयं में भी महसूस हो रही थी । आखिर वह नीम का पेड़ था…वातावरण को शुद्ध करने वाला, शुद्ध वायु देने वाला! इंसान तो इंसान,पशु-पक्षियों को भी अपने पत्तों,अपनी छाल,अपनी टहनियों,अपनी जड़ों और अपने फल नीम्बोली से औषधी बनकर उपचार देने वाला, ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की ऊष्मा से बचाने वाला,अपनी घनी और शीतल छांव में राहत देने वाला नीम का घना पेड़…आखिर कैसे सूख गया। दूसरों के लिए औषधि बन बीमारियों को हरने वाला… लेकिन फिर क्या हुआ कि वह स्वयं ही बीमार हो गया! कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके ऊपर से गुजरने वाले बिजली के तारों ने उसे नुकसान पहुंचा दिया हो किन्तु नहीं, नहीं,ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि उसके पास ही दूसरे आम और नीम के पेड़ भी तो थे जिनकी टहनियों से बिजली के तार टकरा रहे थे वे तो अपने पूर्ण यौवन पर थे,तब फिर क्या हुआ। क्या उसने अपनी पूर्ण आयु प्राप्त कर ली थी लेकिन ऐसा कैसे हो सकता था।कई प्रजातियों के पेड़ तो सैकड़ों वर्षों तक जीवित रहते हैं जबतक कि इंसान खुद उनपर कुल्हाड़ी न चला दे।या फिर उनकी जड़ों के नीचे की जमीन को अपने स्वार्थ के वशीभूत खोखला न कर दे। कहीं ऐसा तो नहीं कि पतझड़ में उसके झरते पत्तों से परेशान होकर घर के ही किसी सदस्य ने उसकी जड़ों में तेजाब बरसा दिया हो! लेकिन नहीं, घर में तो बाबूजी से ही सबको पेड़ -पौधों के संरक्षण के संस्कार मिले हैं। जहां पेड़ -पौधों को परिवार का सदस्य या दोस्त माना जाता हो, वहां उस नीम से कौन दुश्मनी निकालेगा।
मुझे स्मरण आ रहा है जब विद्युत लाइन पर नीम की टहनियों के कारण फाल्ट की स्थिति आ गई थी और विद्युत मंडल की टीम ने पेड़ की अधिक छंटनी करना चाही थी तब मैंने उन्हें कैसे रोक दिया था। कुछ विवादपूर्ण स्थिति बन गई थी तब उनके वरिष्ठ अधिकारी से बात कर केवल पेड़ की आवश्यक छंटनी करने पर सहमति बन गई थी।जब पेड़ -पौधों पर कुल्हाड़ी न चले,इस बात के लिए लोगों से भिड़ जाते हैं तब उसके अस्तित्व को समाप्त करने की तो कल्पना ही नहीं कर सकते।
फिर नीम के इस पेड़ के साथ क्या हो गया।वृक्ष इतना पुराना भी तो नहीं हुआ था जब उसके साथ ऐसा कुछ नहीं था और हां, बाबूजी ने ही तो इसे रोपा था।पचास वर्ष से अधिक तो इसकी आयु भी नहीं हुई थी।तब उसे देखकर मैं सोच रहा था कि क्या इंसान की तरह ही पेड़ -पौधों का भी क्षय होता है। बाबूजी को जरावस्था की ओर जाते हुए देखा था तब मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ ही था कि उम्र क्यों ढलती है! क्या इंसान सदैव जवान नहीं बना रह सकता! पेड़ों को तो हमेशा युवा ही तो देखा है। पतझड़ के बाद बसंत ऋतु में वे और नवयौवन को प्राप्त कर लेते हैं। बारिश के दिनों में और खिल-खिल उठते हैं।तब इस नीम के पेड़ को क्या हुआ। कहीं पड़ोसी ने ईर्ष्या वश इसकी जड़ों में मट्ठा तो नहीं डाल दिया। पतझड़ में गिरने वाले पत्तों से उसे भी बहुत तकलीफ़ होती है। उसकी सीमा में पड़ने वाली टहनियों से जब पत्ते गिरते हैं तो वह नीम को काटने की बात भी तो करता रहा है।नीम के पेड़ से गिरने वाली नीम्बोली भी उसे कचरा ही लगती रही है। किन्तु शायद नहीं। गर्मियों में यही नीम उसकी सीमा में घनी छांव भी तो देता है। उसकी कार भी भरी गर्मी में उसी के नीचे खड़ी रहती है। यहां तक कि उसका चौकीदार भी नीम की गहरी छांव के नीचे कुर्सी लगाए बैठा रहता है और मैंने तो कई बार उसे नींद लेते हुए देखा है।तब क्या बरसात में उसपर बिजली गिर गई किन्तु शायद नहीं, यदि कड़कड़ाती बिजली गिरी होती तो पेड़ का हिस्सा भी जला होता,जलने का तो कहीं नामोनिशान भी नहीं है। फिर मुझे यह भी ख्याल आया कि शायद इस पर चढ़ने वाली गिलोय की बेल ने इसका जीवन हर लिया किन्तु दूसरे ही पल इसे भी सिरे से खारिज कर दिया क्योंकि दूसरे पेड़ों पर भी तो गिलोय की बेल चढ़ी हुई थी लेकिन हां, फिर भी एहतियातन गिलोय की बेल को उखाड़कर नीम के पेड़ को उससे मुक्त करवा दिया था किन्तु तब भी उसपर कोंपलें नहीं फूटी तो नहीं फूटी।
आज फिर वह पेड़ बेरौनक लग रहा था जबकि उसपर कितनी रौनक रहा करती थी। धनेश पक्षी अपने जोड़े के साथ उड़कर आता और घंटों नीम की इस डाल से उस डाल पर फुदकता और अपनी स्वर लहरियों से आल्हादित करता। भारद्वाज पक्षी भी अपने आम्रवृक्ष पर बने आशियाने से उस नीम के पेड़ पर अठखेलियां करता।कभी-कभी बाज भी शिकार की तलाश में आकर वहां बैठ जाया करता था।अब सूखी टहनियों पर शायद उसे और आनन्द आता है। रंग-बिरंगी चिड़ियाएं भी तो चीं-चीं कर चहकती रहती थीं और गिलहरियों की दौड़ -भाग दिनभर चलती ही रहती थीं।
मैं भी तो भरी गर्मी में नीम के नीचे खटिया बिछाकर बैठ जाया करता था।नीम के नीचे शीतल बयार में गहरी नींद भी तो आ जाती थी। लेकिन जब से पेड़ सूखा है,मन विचलित हो गया है। पिछले साल ही तो पड़ोस के चौकीदार ने कहा था कि अब इस पेड़ का क्या उपयोग है। किसी पेड़ काटने वाले को बुलवा लेते हैं।अच्छे घेरे वाला पेड़ है। चार-पांच हजार तो दे ही जाएगा। मैंने थोड़ी नाराज़गी भी जताई और कहा भी था कि नहीं,भले ही पेड़ सूख गया है लेकिन मैं इसे कटवाऊंगा नहीं।हो सकता है कि अगले बसंत में फिर कोंपलें फूट आए।
लेकिन इस बार भी जब कोंपलें नहीं फूटी तो मैंने निश्चय कर लिया कि इसके अस्तित्व को तो खत्म नहीं होने दूंगा।इसी जगह नीम का एक पौधा रोपण कर दूंगा और यह नीम का पेड़ भले ही ठूंठ बन गया हो, जब तक अपने अस्तित्व का परिचय देता रहेगा और स्वयं धरती से नाता नहीं तोड़ लेता तब तक इसकी रक्षा करता रहूंगा।