“उगता सूरज”
आज दिनेश फिर “उगता सूरज” है. “उगता सूरज” डूबा कैसे और फिर उगा कैसे! दिनेश कभी भूल नहीं पाता. भुलाना भी चाहे तो, दस रुपये का वह सिक्का उसे भूलने जो नहीं देता!
उसकी जेब में दस रुपये के चार सिक्के थे और और बैंक एकाउंट में 37 रुपये शेष बचे थे. उगते सूरज की यह हालत कैसे हो गई, उसे याद नहीं है, या कि कहें वह याद करना ही नहीं चाहता!
बचे हुए 77 रुपयों में उसे और 4 दिन गुज़ारने थे क्योंकि नई नौकरी की पगार 4 दिन बाद आने वाली थी. उस परिस्थिति में भी घर वालों से पैसे मांगने में उसकी खुद्दारी आड़े आ रही थी!
उगते सूरज के पास गाड़ी थी, लेकिन अब गाड़ी में पेट्रोल भरवाने के पैसे भी नहीं थे, साइकिल पर ही पास के बगीचे में पहुंचा. वहाँ एक पेड़ के नीचे बैठे-बैठे उसने मायूसी से अपनी बहिन को अपनी व्यथा-कथा सुनाई.
“भाई, तुम “उगता सूरज” थे और तुम्हें सब सलाम करते थे, अब “डूबता सूरज” हो गए हो. तुम जानते ही हो कि “डूबते सूरज” को कोई सलाम नहीं करता. तुम फिर से “उगता सूरज” बन सकते हो, अपनी क्षमता को पहचानो. कुछ ऐसा करो कि फिर सब लोग तुम्हें सलाम करने लगें.” धैर्य से उसकी कथा सुनकर बहिन ने कहा.
दस रुपये के चार केले खरीदना चाहता था, पर हाथ सिकोड़ लिया. “इस दस रुपये के सिक्के को सोने का सिक्का बनाना है.” उसने मन में संकल्प ठाना.
चार दिन निकल गए, पगार मिली. बहिन की बात भूला नहीं था. किफायत-किनायत से कुछ बचाया. हुनर था, ई.बिजनेस शुरु कर दिया.
ई.बिजनेस चल निकला, पगार लेने वाला पगार देने वाला बन गया.
दस रुपये का वह सिक्का अब भी उसकी जेब में था.
“उगते सूरज” को उगने देने से कौन रोक पाया है! फिर से सब सलाम करने लग गए थे.
बहिन ने उसको अपनी क्षमता से पहचान जो करवा दी थी!