ग़ज़ल
किसी के लब पे तेरा नाम बुरा लगता है,
गैर कोई दे तुझे पैगाम बुरा लगता है
कहा है तुमसे कई बार इशारों में मगर,
आज कहता हूँ सरेआम बुरा लगता है,
खबर है जानते हैं सब तुम्हें शहर में पर,
तेरा सबसे दुआ-सलाम बुरा लगता है,
बीत जाता है दिन उलझनें सुलझाने में,
जब आती है गम की शाम बुरा लगता है,
नहीं कोई दुश्मनी पहले की है जो मुझसे तेरी,
तुम्हें फिर क्यों मेरा हर काम बुरा लगता है
हमें दिक्कत नहीं तू गैरों को पिलाए अगर,
मिले हमें जो खाली जाम बुरा लगता है
चार दिन की खुशी, गम उम्र भर का फिर,
मुहब्बतों का ये अंजाम बुरा लगता है
— भरत मल्होत्रा