कविता
विकास की सीढ़ी पर….
कच्चा मांस खाने
पशुओं की खाल ओढ़ने और कबीलों में
रहने से शुरू हुआ जीवन आज
कहां आ पहुंचा आग के अविष्कार से लेकर आज
रोबोट तक का सफर
बेशक रोमांचित करता है आदमी को ।
आज धरती पर
विकास की सीढ़ी लिए खड़ा हुआ आदमी
इतना स्वार्थी और महत्वाकांक्षी हो गया है कि
वह प्रकृति पर
विजय के झंडे फहराना चाहता है
अपनी विजय के गीत प्रकृति को सुनाना चाहता है ।
चांद तारों को मुट्ठी में लेकर अपनी
छतों पर सजाना चाहता है
क्षितिज को छूकर
अपनी बुलंदियां के गीत गुनगुनाना कहता है ।
स्वार्थ लोलुपता में अंधा हुआ आदमी
विकास के नाम पर विनाश के मीनार बनाने में
व्यस्त है
बमों के धुंए से सभ्यता की तस्वीर पलों में
धूमिल हो सकती है इस बात से जरा भी नहीं
त्रस्त है ।
इससे पहले कि प्रकृति नाराज़ हो जाए
और तुम्हें सबक सिखाए
खुद को अंधे विकास से हटा लो
जल जंगल जमीन बचा लो ।।
— अशोक दर्द