गीत “कंचन का गलियारा है”
गीत “कंचन का गलियारा है”
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वासन्ती परिधान पहनकर, मौसम आया प्यारा है।
कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।।
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तितली सुन्दर पंख हिलाती, भँवरे गुंजन करते हैं,
खेतों में लहराते बिरुए, जीवन में रस भरते हैं,
उपवन की फुलवारी लगती कंचन का गलियारा है।
कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।।
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बीन-बीनकर तिनके लाते, चिड़िया और कबूतर भी,
बड़े जतन से नीड़ बनाते, बया-चील और तीतर भी,
जंगल में टेसू का पादप, बना हुआ अंगारा है।
कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।।
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अंगूरों के गुच्छे लटके, फिर आँगन की बेलों में,
सुर्ख रंग के फूल खिले हैं, फिर बगिया के केलों में,
इठलाती-बलखाती फिर से, बहती निर्मल धारा हैं।
कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।।
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प्रणय दिवस का भूत चढ़ा है, यौवन की अँगड़ाई में,
छल-फरेब का चलन बढ़ा है, पूरब की पुरवाई में,
रस के लोभी पागल मधुकर, घूम रहे आवारा हैं।
कोमल-कोमल फूलों ने भी, अपना रूप निखारा है।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)