ग़ज़ल
ढाए हैं हम पे दुनिया ने कुछ ऐसे सितम भी
लगने लगे हैं एक से कातिल भी, सनम भी
महफिल में तेरी रोशनी कहीं हो ना जाए कम
जलते रहे चिरागों के संग शाम से हम भी
रोशन सितारे कितने ही हुए सुपुर्द-ए-खाक
रखा नहीं है वक्त ने किसी इक का भरम भी
दीवार-ओ-दर सब बैठ गए शिद्दत-ए-नम से
हम पर हुआ है बारिशों का ऐसा करम भी
माँग तो ली तूने मुझसे अपनी हर इक चीज़
कुछ बाकी रह गया था ले जा ये तेरा गम भी
जो भी गया ज़माने ने उसको भुला दिया
मिट जाएँगे राहों से मेरे नक्श-ए-कदम भी
सज़ा-ए-जुर्म-ए-तमन्ना क्यों आई मेरे हिस्से
शरीक-ए-गुनाह-ए-इश्क बराबर के थे तुम भी
— भरत मल्होत्रा