लघुकथा – एमर्जेंसी ड्यूटी
यह इत्तफ़ाक ही था कि जिस दिन उसे सावधि जमा योजना के पैसे मिले, उसी दिन गाँव से पिताजी का तार आया- ‘‘तुम्हारी माँ की हालत बहुत खराब है, अच्छा होगा कि उसे इलाज के लिए शहर ले जाओ।’’
वह सोच ही रहा था कि पत्नी ने कहा- ‘‘देखो जी अब तो कुछ पैसे इकट्ठे मिले है, क्यों न किसी अच्छी जगह घूम आएँ।’’
‘‘लेकिन…।’’
वह कुछ कहता, इसके पहले ही पत्नी बोल पड़ी- ‘‘उनको यहाँ लाने से पहले मुझे मेरे मायके छोड़ देना। मैं आखिर कब तक तरसती रहूँगी। उनकी बीमारी के कारण ही आपने मुझे एक बार भी कहीं बाहर नहीं घुमाया … अब बड़ी मुश्किल से चार पैसे हाथ आये हैं तो तुम फिर वही सब …।’’ और वह रो पड़ी।
‘‘अच्छा बाबा, अब चुप भी करो … मैं पिताजी को लिख देता हूँ कि दफ्तर में इमर्जेन्सी ड्यूटी के कारण मैं नहीं आ सकता …।’’ और फिर दोनों पर्यटन के लिये कुल्लू-मनाली चले गये। एक महीने बाद जब वापस आये तो पिताजी का तीन दिन पुराना संदेश मिला- ‘‘तुम्हारी माँ गुजर गयी। समय मिले, तो अंतिम क्रियाकर्म में शामिल होने के लिए आ जाना।’’
— डाॅ. प्रदीप कुमार शर्मा